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प्रकरण दूसरा
मिलती है । इसका कारण शायद विधर्मियों का अत्याचारपूर्ण आक्रमण ही हो ।
( ६ ) नौ अंगों पर टीका का अभाव देखकर वि० सं० ११२० में चंद्रकुलीय श्राचार्य अभयदेवसूरि ने नौ अंगों पर पुनः टीका की रचना की जो सम्प्रत काल में विद्यमान है ।
(७) श्री शीलांगाचार्य कृत दो अंगों की टीका भी अल्पज्ञों के लिये कठिन प्रतीत होने लगी, तब विक्रम की सौलहवीं शताब्दी में आचार्य जिनहंसूरि ने श्राचारांगसूत्र पर एक दीपिका रची । आप स्वयं ही फरमाते हैं, कि
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"शीलांकाचार्य रचिता वृत्तिरस्ति सविस्तरा, श्री आचारांगसूत्रस्य दुर्विगाह तरंगतः ॥ २॥ अनुग्रहार्थं सभ्यानां व्याख्यातृणां सुखावहा, श्री जिनहंससूरीन्दैः क्रियतेस्म प्रदीपिका ॥ ३ ॥ श्री आचारांगसूत्र पृष्ठ २ (८) श्री शीलांगचार्य एवं श्री अभयदेवसूरि कृत टीकाएँ और जिनहँससूरी रचित दीपिका भी जब लोगों के लिए कठिन 'प्रतीत होने लगी, साधारण - ज्ञानवाले मनुष्य उनसे समुचित लाभ उठा सकने में समर्थ प्रतीत होने लगे, तब विक्रम की सोहलवीं शताब्दी में श्री पार्श्व चन्द्रसूर ने उन आगमों पर टीका अनुसार गुर्जर भाषा में टब्बा यानी गुजराती भाषा में अनुवाद कर डाला, इस विषय में आप फरमाते हैं, कि
"पणम्य श्री जिनाधशिं, श्रीगुरुणामनुगृहात् । ळिखते सुखबोधार्थमाचारांगथवार्तिकम् ॥ १ ॥
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