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जैनागमों की प्रमाणिकता
सुतरां शब्दशास्त्रेण, येषांबुद्धिरसंस्कृता । व्यमोहो जायते तेषां, दुर्गमेवृत्तिविस्तरे ॥२॥ ततो वृत्तेः समुद्धृत्य, सुलभो लोकभाषण । धर्मळिप्सूपकारायादि मांगाऽर्थः पतन्यते ॥३॥
श्री आचारांगसूत्र पृष्ठ १ । आचार्य गन्धहस्ती सूरि और पार्श्वचन्द्र सूरि के बीच में लगभग १३०० वर्षों का अन्तर है । इन १३०० वर्षों में अनेक चैत्यवासी क्रियोद्धारक गच्छ मत पैदा हुए, किन्तु किसी ने इस प्रकार का एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया, कि अमुक आगम अथवा अमुक टीकादि हमें मान्य नहीं है । कारण कि वे लोग उच्चकोटि के विद्वान् थे और आगमों तथा नियुक्ति एवं टीका के सम्बन्ध में जानते थे कि ये चीजें हमारे धर्म के लिए स्तम्भ हैं और इन पर ही शासन चल रहा है।
किन्तु, यह हमारा दुर्भाग्य था, कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लौकाशाह नामक एक व्यक्ति उत्पन्न हुआ । श्री संघ से तिरस्कृत होकर उसने अपना एक अलग मत निकाला । उस पर, अनार्य-संस्कृति का इतना बुरा प्रभाव पड़ा, कि प्रारम्भ में तो उसने क्रोध तथा आवेश में भरकर जैनसाधु, जैनागम, सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान और मूर्तिपजादि से खिलाफ एवं बिलकुल इन्कार ही कर दिया और केवल पाप-पाप, हिंसा-हिंसा, दया-दया चिल्लाकर अपना मत चलाना चाहा । किन्तु ऐसे अल्पज्ञ और जैनशास्त्रों क विरुद्ध प्ररूपण करनेवाले मनुष्य की बात कौन स्वीकार कर
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