SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण दूसरा सकता था ? अन्त में, लौकाशाह को अपनी अन्तिम अवस्था में इस अकृत्य के लिये पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त करना पड़ा एवं भाणादि कई मनुष्यों को बिना गुरु के ही वेश पहनाकर साधु बनाया। इसके पश्चात् श्री पार्श्वचन्दसूरिकृत गुजर भाषा के अनुवादवाले ३२ सूत्र उन के हाथ लगे, जिनमें अर्थ का अध्ययन करने पर उन लोगों की समझ में यह बात आ गई कि लौकाशाह ने जिन क्रियाओं का निषेध किया है वे क्रियाएँ उचित हैं और बिना सोचे-समझे ही निषेध किया गया है। परिणाम यह हुआ कि जिन क्रियाओं का लौकाशाह ने निषेध किया था, उन्हीं को लौकाशाह के पश्चात् उसके अनुयायियों ने स्वीकार कर लिया और अनेक मुमुक्षु सत्य बात की खोज करके नौकामत का परित्याग कर शुद्ध-सनातन जैनधर्म की शरण में आये एवं मूर्तिपूजक बन गये । लौंकामत के शेष अनुयायियों ने अन्यान्य क्रियाओं के साथ ही मूर्तिपूजा को भी स्वीकार करके तथा अपने उपाश्रयों में वीतराग की मूर्तियों की स्थापना कर एवं द्रव्य भाव से उनकी पूजा करके अपना आत्म-कल्याण करना प्रारम्भ कर दिया। ___ लौकागच्छ के विद्वान यतियों ने कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई, अनेक ग्रन्थों को निर्माण किया, बहुत से सूत्रों की प्रतिलिपियाँ की जिनमें टीकानुसार जो टब्बा श्री पावचन्द्रसूरि ने किया था उसे ही मान्य रक्खा । जब मूर्तिपूजा का खास मतभेद मिट गया, तो फिर सूत्रों में तो मतभेद रह ही क्या जाता है ? विक्रमकी अठारहवीं शताब्दी, लौंकामत के लिये एक उत्पात का दुःखद समय था। लौकागच्छीय श्रीपूज्य शिवजी ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy