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जैनागमों की प्रमाणिकता अपने शिष्य धर्मसिंह को अयोग्य समझकर गच्छ से बाहर निकाल दिया । उसने श्रावक की आठकाटि सामायिक के बाहना से एक अलग मत निकाला । इसके बाद लवजी और धर्मदास जी ने भी अपने-अपने अखाड़े अलग जमाये । धर्मसिंहजी ने 'पार्श्वचन्द्रसूरी कृत टब्बे में मूर्ति विषयक कई अर्थ बदलकर अपने नाम से कई सूत्रों पर टब्बा बना लिया। यह 'दरियापुरी टब्बा' के नाम से प्रसिद्ध है। किन्तु, इसका प्रचार आठकोटि समुदाय में ही विशेष था और मारवाड़, कोटा, मालवा आदि के स्थानकमार्गी सिंघाड़ों में तो श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि कृत टब्बे का ही प्रचार था । स्थानकवासी पूज्य हुक्मीचन्दजी महाराज ने अपने हाथों से १९ सूत्र टब्बे सहित लिखे, जिनमें उपासकदशांगसूत्र में आनन्द श्रावक के अधिकार में आपने स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि "अन्यतीर्थियों द्वारा ग्रहण की हुई जिन प्रतिमा को वन्दन नमस्कार करना आनन्द को नहीं कल्पता है"। इसी प्रकार से उववाईसूत्र में अम्बड़ के अधिकार में भी लिखा था और श्री पीरचन्दजी स्वामी आदि कई आत्मार्थी साधुओं ने इसी प्रकार से श्री पार्श्वचन्द्रसूरि का ही अनुकरण किया। कारण, कि वे लोग भववृद्धि से डरते थे। इन लेखों को देखकर बहुत से समझ दारों की श्रद्धा मूर्ति की ओर मुक गई और अनेक व्यक्ति मूर्तिपूजक समाजमें जा मिले। उनमें इस किताबका लेखक भी एक है।
किन्तु, आजकल के नये विद्वानों को यह घाटा कैसे सहन हो सकता है ? अतः इस घाटे को रोकने के लिये सब से पहला साहस स्था० साधु अमोलखऋषिजी ने किया। आपने पार्श्वचन्द्र सूरि और धर्मसिंहजी के टब्बे का सहारा लेकर ३२ सूत्रों का
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