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प्रकरण दूसरा
३२
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हिन्दी अनुवाद मुद्रित करवाया। जिस समय आपका यह कार्य प्रारम्म हो रहा था, उसी समय अनेक स्थानकवासियों की ओर से समाचारपत्रों में इस आशय के नोटिस प्रकाशित हुए थे, कि यदि ३२ सूत्रों का अनुवाद करना ही हो, तो किसी संस्कृत के विद्वान पण्डित को अपने पास रख टीकाओं का भाशय लेकर अनुवाद किया जाय, ताकि वह सर्वमान्य हो सके। किन्तु, ऋषिजी ने बिना किसी की परवाह किये, पूर्वप्रचलित टब्बों में स्वेच्छानुसार परिवर्तन करके अपना अनुवाद छपवा ही डाला। पर जब उनके पन्नों को किसी विद्वान ने देखा और अपने अभिप्राय दिये तो स्वामीजी को उन पन्नों को रद्दी खाते में डालने पड़े और बाद में कुछ विद्वानों का सहारा लेकर दूसरा अनुवाद छपवाया । यदि उस अनुवाद को भी कोई सभ्य मनुष्य पढ़े तो उसे अत्यन्त दुःख हुए बिना रह नहीं सकता। भला जिस व्यक्तिको ह्रस्व-दीर्घ तथा शब्दों के शुद्धस्वरूप तक का ज्ञान न हो, वह सूत्रों के गूढ़ आशय को क्या तो स्वयं समझ सकता है और क्या उसे दूसरों पर व्यक्त ही करसकता है ? इसी कारण ऋषिजीकृत ३२ सूत्रों का हिन्दी अनुवाद स्थानकवासी समाज में भी सर्वमान्य नहीं हो सका। ___ऋषिजी ने केवल एक मूर्तिपूजा के कारण ही अनेक प्रपंचों की रचना की तथा मूलसूत्रों एवं अर्थ में स्खूब रद्दोबदल कर डाला है । यहाँ तक, कि कहीं-कहीं ता मूलपाठ को उड़ा दिया गया और कहीं मूलपाठ को बदल कर उसके स्थान पर अन्य पाठ बनाकर रख दिया गया। अनेक स्थानों पर सूत्रों में न होने पर भी अपनी कल्पना से नोट लिख दिये । किन्तु मर्तिपूजा
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