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परिशिष्ट
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का उल्लेख किया है, और उन आचार्यों के असली श्राशय को नहीं समझते हुए कई लॉग अपनी पुस्तकों में ऐसा छपवा भी दिया है और कई स्थानों पर अर्थ के बदले अनर्थ भो कर डाले. हैं, फिर भी झूठे कभी सच्चे बन ही नहीं सकते हैं। उन पूर्वा-चार्य के प्रन्थों से देखा जाय तो किसी हालत में डोराडाल दिन भर मुँहपत्ती मुँह पर बाँधनी सिद्ध नहीं होती हैं ।
दूसरा जब जैनागम लेखबद्ध किये गये थे, वे प्रायः ताड़पत्रों पर ही लिखाये गये थे और वे लम्बे ज्यादा और चौड़े कम थे जिनको यदि एक हाथ से पकड़ा जाय तो दोनों किनारे नीचे गिर कर टूट जाने का डर था श्रतएव उन ताड़पत्रों को दोनों हाथों से दोनों किनारे पकड़ कर व्याख्यान में बोचे जाते थे । इस दशा में मात्र व्याख्यान के समय वे लोग मुँहपत्ती को त्रिकोनी कर कानों के छेद्रों में डाल देते थे कि जिससे सूत्रों का रक्षण हो खुल्ले मुँह बोला न जाय और सूत्रों पर मुँह का थूक भी न लग सके तथा स्थापना प्रतिलेखन समय अपने नाक की वायु स्थापन जी को न लगने के कारण, यो मकान का कचरा जो बहुत अस का पड़ा हुआ हो खराब रज उड़कर मुँह में पड़ जाती हो और थंडिल की भूमिका दुर्गन्धमय हो, इस हालत में जैनमुनि वस्त्र से मुँह आछादित कर सकते हैं और वे उतने ही समय के लिये,.. न कि दिनभर डोराडाल मुँहपत्ती मुँहपर बाँधी हो अर्थात् न तो किसी जैनाचार्य ने अपने ग्रन्थ में डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती दिन भर बाँधना लिखा है और न उन्होंने या उनकी परम्परा में आज पर्यन्त किसी ने बाँधी है ।
परन्तु हमारे स्थानकवासी भाइयों को डोराडाल दिनभर
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