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________________ प्रकरण चतुर्थ ८२ आगे आप जैन साधु भ्रष्टाचारी जो अन्यतिथियों के परिगृहीत होना लिखते हैं पर जैन से भ्रष्ट हो गया और उसको अन्यतिथियों ने ग्रहण कर लिया वह साधु जैनों का नहीं रहा पर वह तो अन्यतिथियों का साधु हो चुका और उसको वंदना नहीं करना तो पहिले पाठ में आ ही गया जैसे खंदकसन्यासी, और शिवराजर्षि श्रन्यतिथियों के साधु थे वे जैन साधु बन गये उनको जैन साधु ही कहा जाता है न कि अन्यतिथियों के । अतएव आनन्द श्रावक ने यही प्रतिज्ञा की थी कि जिनप्रतिमा को अन्यतिथि ग्रहण करली हो उसको मैं कदापि नहीं वन्दूंगा और जिनप्रतिमा को अन्यतिथि प्रहण करने के उदाहरण आज भी आपके सामने विद्यमान हैं जैसे जगन्नाथपुरी के मन्दिर में भगवान् शान्तिनाथजी की प्रतिमा, बद्रीजी के मंदिर में प्रभुपार्श्वनाथ की प्रतिमा, कांगड़ा में ऋषभदेव की प्रतिमा, श्रन्यमतियों ने ग्रहण कर ली और अपनी विधि से पूजते हैं वहाँ जाकर श्रावक को बन्दन पूजन करना नहीं कल्पता है । यदि ऋषिजी पहिले घर में निगाह कर लेते कि हमारे पूर्वजों ने इस पाठ का क्या अर्थ लिखा है जैसे लौंकागच्छीयों की मान्यता तो, ऋषिजी के अनुवाद के साथ तुलना कर हम बतला चुके हैं और स्थानकवासी पूज्य हुकमचन्दजी महाराज तथा साधु पीरचन्दजी ने अपने हाथों से कई सूत्रों की प्रतियों लिखी जिसमें उपाशकदशांग सूत्र एवं श्रानन्द श्रावक के अलावा में उन लोगों ने स्पष्ट लिख दिया था कि जो जिनप्रतिमा अन्यतिथियों ने ग्रहण करली हो वह श्रानन्द को वन्दन पूजना करना नहीं कल्पता है । आनन्द श्रावक के इस अभिग्रह का कारण लौकाशाह के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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