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आनद श्रावक का पूजा
ऋषिजी इस पाठ के फुटनोट में लिखते हैं कि कई प्रतियों में "अरिहंत चेहाणिवा, ” पाठ है परन्तु यह पाठ कई प्रतियों में नहीं भी है शायद इसी कारण आपने 'अरिहंत चेइाणिवा' के स्थान पर केवल ' चे आणिवा' लिख दिया परन्तु ऋषिजी को पूछा जाय कि आपने अनुवाद में जैन के भ्रष्टाचारी साधु लिखा है उसमें साधु तो शायद आप चे आणिवा का अर्थ कर दिया होगा परन्तु जैन यह किस शब्द का अर्थ किया है ? और आगे आप साधु के साथ भ्रष्टाचारी शब्द जोड़ दिया है यह किस मूल पाठ का अनुवाद है क्योंकि आपके मूल पाठ में तो यह दोनों (जैन और भृष्टाचारी ) हैं ही नहीं। फिर आपने यह कल्पना कर उत्सूत्र भाषीत्व का बज्रपाप शिर पर क्यों उठाया ? यदि यह कहा जाय कि मूल सूत्र में तो पूर्वोक्त दोनों शब्द नहीं हैं परन्तु इन शब्दों बिना अर्थ संगत नहीं बैठता है इसलिए इन दोनों शब्दों का प्रक्षेप करना पड़ता है । वाह ! वाह !! ऋषिजी वाह !!! अरिहंत शब्द के लिए तो कई प्रतियों में होने पर भी आप इनकार करते हो और जैन और भ्रष्टाचारी शब्द सूत्र में नहीं होने पर भी प्रक्षेप करते हो तब तो यह सूत्र ही नहीं रहा । एक आपने अपने घर की वस्तु मानली कि इच्छा हो उस शब्द को निकाल दो और दिल चाहे उस शब्द को प्रक्षेप कर दो पर श्रापको इतना ही ज्ञान नहीं है। कि अरिहंत और जैन एक हैं या भिन्न-भिन्न हैं ? यदि आपको प्रतिमा ही नहीं मानना है तो फिर अरिहंत का साधु कहने में क्या हर्ज था ऐसा कहने से न तो अरिहंत शब्द निकालना पड़ता और न जैन शब्द प्रक्षेप करना पड़ता और न उत्सूत्र रूपी पोप की गठरी शिर पर उठानी ही पड़ती पर इतनी अकल आवे कहाँ से १
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