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प्रकरण चतुर्थ
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यक्षादि अन्य तीर्थियों के देव देवियों को वन्दन नमस्कार करने का त्याग कर दिया था इस हालत में वे यज्ञादि के मन्दिर कैसे बना सके । आनन्दादि श्रावकों अपने धर्मपर कैसे दृढ़ और मजबूतथे वे भगवान् महावीर के पास श्रावकके व्रत लेने के बाद आपकी दृढ़ता का परिचय प्रभु महावीर के सन्मुख इस प्रकार दिया था कि हे प्रभू"यो खलुभेभंते । कप्पर अज्जप्पभइओ, अण्णा उत्थिए वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा, अरणउत्थिय परिगाहियाणि इवा चेइयोतिवंदितार वा मंसिता वा "
लौंका०वि० सं० टवार्थ
ण-कहता न कल्पै. खलु-निश्चय, हे भगवान् आज दिनहुति पछे मानुं नहीं - अन्यतिथिना तपस्वी ने -साधु ने, अन्तर्थिना हरिहरादि मिथ्यावी देवता, वली तथा अभ्यतिथि ये अरिहंत ना परिगृहित ते बिंब - चैत्य तेह ने आज पछी मन वचन काया ये बाँदवा नहीं नमस्कार करउ नहीं।
स्था० साधु अमोल० हि० अनु
मुझे आज पीछे अन्यतिथियों को तथा अन्यतिथियों के धर्मदेव शाक्यादि साधुओं अथवा अन्यतिथियों ने ग्रहण किये जैन के साधु भिष्टाचारी को बन्दन नम-स्कार करना नहीं कल्पता है |
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* अनुवाद की योग्यता देखिये आप अन्य तीर्थियों के धर्मदेव - शाक्यादि बताते हैं वास्तव में वे देव नहीं पर गुरू हैं देव तो हरिहरादि हैं वह आप
ने लिखा भी नहीं है ।
श्री उपाशक दशांग पृष्ट ५२
१ स्था० पूज्य घासीलालजी ने हाल ही उपासकदशांग सूत्र मुद्रित करवाया है उसमें "अरिहंत चेहया" पाठ दिया है ।
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उपाशक दशांग सूत्र पृष्ठ २५
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