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________________ ( ४९ ) जिस समय आगमों की रचना हुई वे आज लाख नहीं बल्कि करोड़वें हिस्से में भी नहीं रहे हैं फिर भी कई अनभिज्ञ लोगों ने वो अपने हृदय को इतना संकीर्ण बना लिया है कि उस रहे हुए साहित्य समुद्र को छोड़ केवल ३२ सूत्र और उसमें भी मूल पाठ को ही मानने का आग्रह करते हैं। यही कारण है कि वे लोग, दार्शनिक, तात्त्विक और ऐतिहासिक ज्ञान से हाथ धो बैठे हैं। इसी कारण उनमें ज्ञान की इतनी मात्रा बढ़ गई है कि अपनी मानी हुई हठप्राहिता के अतिरिक्त जैन धर्म के वास्तविक मर्म को वे अभी समझे ही नहीं हैं-इत्यादि विषय का दिग्दर्शन कराने वाले इस प्रकरण को लिखकर इसमें कोई सन्देह नहीं है कि लेखक महोदय ने जैन-साहित्य की अनुपम सेवा की है। प्रकरण तीसरा और चौथा-जैन धर्म में अनादि काल ये शाश्वत एवं अशाश्वत मूत्तियों के लिए बहुत ही उपासन दिया है और उन मूर्तियों के द्वारावीतराग तीर्थकर देवों की सेवा भक्ति एवं उपासना कर अपनी आत्मा का विकास करना भी बतलाया है इस विषय का विशेष उल्लेख आपने प्रस्तुत प्रन्थराज के ३ व ४ प्रकरण में किया है तथा साथ ही इस बात को परिपुष्ट करने के लिए लेखक श्री ने बहुत से आगमों के मूल पाठ, एवं उनके स्पष्टीकरण के निमित्त श्रीमान् लौकाशाह के अनुयायी लौंकागच्छीय विद्वानों द्वारा संशोधित गुर्जर भाषानुवाद, तथा स्थानकवासी मुनि अमोलखऋषिजीकृत हिन्दी अनुवाद को उस मूल पाठ के नीचे दोनों तरफ अर्थात् आमने-सामने रखकर तुलनात्मक रष्टि से यह बतलाने का प्रयत्न किया है कि स्थानकवासी श्राप अपने को लौकाशाह की संवान होना बतलाते हैं पर वास्तव में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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