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________________ ( ४८ ) जान उसकी प्रमाणवा के अनुकूल अपनी इस पवित्र कृति को सुसज्जित करने का भरसक प्रयत्न किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मूर्ति पूजा ही एक असाधारण विषय था और फिर उसकी प्रत्येक घटना को इतिहास द्वारा प्रमाणित करके आपने सोना और सुगंध की कहावत चरितार्थ की है । लेखक महोदय ने पुस्तक के विषयानुसार इसे पाँच भागों में विभक्त कर दिया है-और भिन्न भिन्न विषय को समझने के लिये तत्सबंधी प्रकग्ण का निर्वाचन पढ़ने वालों के लिये सुविधाकारक होता है यह विज्ञ पाठकों से छिपा नहीं है । साथ ही पुस्तक ऐसे रोचक ढंग पर लिखी गई है कि, हाथ में लेने के बाद बिनो सम्पूर्ण पढ़े उसे रखने की इच्छा ही नहीं होती है। उदाहरण स्वरूपः प्रकरण पहिला-मूर्ति की प्राचीनता, विश्व के साथ मूर्ति का घनिष्ट संबंध, निराकार ईश्वर की आसना के लिये नकी मूर्ति की परमावश्यकता, साथ ही साथ यह भी व्यक्त कर दिया है कि संसार भर में मूर्ति का विरोध कब, क्यों और किस व्यक्ति द्वारा हुआ इतना ही नहीं बल्कि यह भी कि कुछ समय बाद उनके ही अनुयायियों ने किस प्रकार से मूर्ति स्वीकार करली । इन सब बातों के स्पष्टीकरण करने में लेखक महोदय को कितना परिश्रम उठाना पड़ा होगा- यह आप इसके विस्तृत विवे. चन को पढ़ कर ही निर्णय कर सकेंगे। प्रकरण दूसरा-जैनागमों की वास्तविक प्रमामिकता, प्राचीनता और विशालता बतलाते हुये उनकी संख्या के लिए पद, . लोक के अंक कोष्टक में देकर यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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