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. ( ५० लौकाशाह का सिद्धान्त उनको मान्य नहीं है। और वे लौकागच्छीय विद्वानों के अर्थ का किस प्रकार अनर्थ कर अपने मिथ्या स्वार्थ को सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं, इत्यादि। - प्रकरण पाँचवाँ-समय का प्रभाव है कि कुछ लोग आगम की ओर दृष्टि न कर केवल इतिहास प्रमाण को ही मान्य करते हैं ! हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष होता है कि समर्थ लेखक विद्वान् महोदय ने इसी ग्रन्थ के पांचवे प्रकरण में ऐतिहासिक अकाट्य प्रमाणों द्वारा हमारे शास्त्रों के विधानों को इतने मौलिक एवं प्रमाणित रूप में सिद्ध कर दिया है कि वे तीर्थङ्कर-प्रणीत आगम अक्षर २ सत्य एवं वास्तविक कथन के प्रदर्शित करने वाले हैं। हमें यह लिखते हुये गौरव होता है कि मुनिश्री ने पूर्ण परिश्रम कर ऐतिहासिक प्रमाणों का एक जबर्दस्त संग्रह कोश तैयार करके अपना नाम ऐतिहासकारों के समक्ष स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य कर दिया है इतना ही क्यों ? पूर्व और पश्चिम सभ्यता के उद्योग से जो भूगर्भ से हजारों वर्ष की प्राचीन मूर्तियां, सिक्के, ताम्रपत्र, आयगपटादि अनेक ऐतिहासिक साधन प्राप्त कर जैन धर्म पर उज्ज्वल प्रकाश डाला है उनके प्रमाण मात्र ही नहीं किन्तु आपश्री ने तो उनके चित्र भी साथ ही में दे दिये हैं कि जिनको पढ़ लेने पर जैन धर्मानुयायियों की मूर्ति पूजा कदीमी मानने में किसी प्रकार का सन्देह शेष नहीं रह सकता है। आगे चल कर इस प्रकरण के अन्त में एक परिशिष्ट कि जिसमें कलिंग अर्थात् महामेघवहान चक्रवर्ती महाराजा खारवेल का शिलालेख तथा मथुरा से मिली हुई कई प्राचीन मूर्तियों के शिलालेख मुद्रित करवा कर इस पुस्तक की
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