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प्रकरण पहिला
वैज्ञानिक, व्यवहारिक और धार्मिक, कोई भी कार्य क्यों न हो बिना मूर्ति न तो इतना ज्ञान हो सकता है, और न किसी का काम ही चल सकता है। छोटे से छोटा बालक और बड़े से बड़ा अध्यात्मयोगी कोई भी क्यों न हो पर उनको भी अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए सर्वप्रथम मूर्ति की आवश्यकता रहती है। इस विषय में वर्तमान के विद्वानों के भी दो मत नहीं, किन्तु मूर्ति मानने में तो सब का एक मत ही है।
मूर्तिपूजा का सिद्धान्त विश्व व्यापक है। यह किसी भी समय विश्व से पृथक नहीं हो सकता । जैसे सुवर्ण और तद्गत पीलापन ये दोनों अभिन्न हैं, वैसे ही विश्व और विश्ववन्द्य मूर्तिपूजा ये भी अभिन्न हैं । ऐसी दशा में मूर्ति को नहीं मानना एक प्रकार से प्रकृति का खून करना ही है।। ___ यद्यपि मुमुक्षुओं का अन्तिम ध्येय जन्म, मरण आदि के दुःखों का अन्तकर अक्षय सुख प्राप्त करने का होता है, और इसी उज्ज्वल उद्देश्य को लक्ष्य में रख, वे यथा साध्य प्रयत्न भी करते हैं । परन्तु इस महान कार्य की पूर्ति के लिए भी सबसे पहिले शुभाऽऽवह निमित्त कारण की आवश्यकता रहती है, जिस से चञ्चल चित्त की एकाग्रता, इन्द्रियों का दमन, कषायों पर विजय, आदि प्राप्त कर सके। और वह निमित्त कारण संसार भर में मुख्यतया में एक मात्र प्रभु की शान्त मुद्रा ध्यानस्थित मूर्ति ही है कि जिसके द्वारा पूर्वोक्त सब कार्य सरलता से सिद्ध हो सकते हैं। फिर मूर्ति चाहे पाषण की हो, काष्ठ की हो, सर्वधातु की हो, अथवा किसी अन्य पदार्थ की भी क्यों न हो, किन्तु उपासक का तो लक्ष्य, उस मूर्ति द्वारा परमात्मा के सच्चे स्वरूप
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