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मूर्तिपूजा की प्राचीनता ।
का चितवन करना है। जिन महानुभावों ने मूर्तिपूजा के गूढ़ रहस्य को ठीक तौर से समझ लिया है, वे तो संसार से सदा विरक्त रह कर सांसारिक सुख भोगों में लेश मात्र भी रति नहीं रखते हैं । पाप और अन्याय उन्हें छूतक भीनहीं सकता है । ईश्वरके प्रति श्रद्धा, प्रेम और भक्ति, धर्मपर दृढ़ श्रद्धा, और विश्वास तथा ईश्वरत्व के विषय में अस्तित्व बुद्धि रखना उनका प्रधान ध्येय होता है | अतः यह सिद्ध है कि संसार में सदाचार, शान्ति सुख और समृद्धि का मूल कारण केवल मूर्तिपूजा ही है । अस्तु ! इससे आगे चल कर जब हम धार्मिक सिद्धान्तों की ओर देखते हैं तब भी हमें मूर्ति की परमावश्यकता प्रतीत होती है। क्योंकि ईश्वर की उपासना करना धर्म का एक मुख्य अङ्ग है, और उसकी सिद्धि के लिए मूर्ति की खास जरूरत है । कारण यह कि निराकार ईश्वर की उपासना बिना मूर्ति के हो ही नहीं सकती है । यदि कोई सज्जन यह सवाल करें कि उपासना के लिए जड़ रूप मूर्ति की क्या आवश्यकता है ? हम तो केवल ईश्वर के गुणों की उपासना कर सकते हैं ? परन्तु यह कहना केवल अपना बचाव करना मात्र है । कारण, कि जैसे ईश्वर निराकार है वैसे
ईश्वर के गुण भी तो निराकार हैं । अर्थात् ईश्वर के गुण ईश्वर से पृथक् २ वस्तु नहीं है, किन्तु एक ही है । जैसे गुण और गुणी भिन्न २ नहीं है, वैसे ही ईश्वर और ईश्वर के गुण अलग २ नहीं है। जब ईश्वर और ईश्वर के गुण निराकार हैं, तथा उनको चर्म चक्षु वाले प्राणी देख नहीं सकते हैं तो उन निराकार गुणों की उपासना अल्पज्ञ जन कैसे कर सकते हैं ? इनके लिए तो साकार, इन्द्रिय गोचर, दृश्य पदार्थों की ही आवश्यकता रहती है ।
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