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प्रकरण पहिला _ यदि कोई यह प्रश्न करे कि ईश्वर या ईश्वर के निराकार गुणों की, हम हमारे मन मन्दिर में केवल मानसिक कल्पना कर उपासना कर लेंगे, तो फिर पाषाणमय मन्दिर मूर्ति की क्या आवश्यकता है ? पर यह भी एक अज्ञान ही है । कारण ! जब आप अपने मन मन्दिर में निराकार ईश्वर की कल्पना करेंगे तो वह कल्पना साकार ही होगी। जैसे कि-"तीर्थकर अष्ट महाप्रतिहार विभूषित केवल ज्ञानादि संयुक्त समवसरण में विराज कर देशना दे रहे हैं, इत्यादि"। अब आप स्वयं सोचिये कि मन्दिर वा मूर्ति मानने वाले आपकी इस कल्पना से विशेष क्या करते हैं ? वे लोग भी मन्दिरों में समवसरण स्थित अष्टमहा प्रतिहार सहित शान्तमुद्रा ध्यानमय मूर्ति स्थापित करते हैं। इस तरह कल्पना या साक्षात् मूर्ति मानने वालों का ध्येय, वीतराग की उपासना करने का तो एक ही है । यदि अन्तर है तो इतना ही कि काल्पनिक मन मन्दिर तो क्षण विध्वंसी है, और साक्षात् मन्दिरमूर्ति चिरस्थायी होते हैं। अतः सर्वश्रेष्ठ तो यह है कि चिरस्थायी बने बनाये दृश्य मंदिरों में जाकर भक्तिभाव पूर्वक भगवान् की शांतमुद्रा मूर्ति की पूजा-अर्चा करके आत्मकल्याण करें। क्योंकि शास्त्रों में भी यही विधान है जो हम
आगे चल कर तृतीय और चतुर्थ प्रकरण में मूल सूत्रों के उद्धरण दे देकर स्पष्ट सिद्ध कर बतावेंगे। जब हम इतिहास के जूने-पुराने पन्नों को टटोलते हैं तब हमें स्पष्ट पता चलता है कि जितना प्राचीन इतिहास संसार के लिए मिलता है, उतना ही प्राचीन, मूर्तिपूजा, की सिद्धि के लिए भी मिलता है। इसका कारण यह है कि संसार के इतिहास के साथ ही साथ संसारी
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