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सिखों में मूर्तिपूजा
__ मारवाड़ के गीरी ग्राम में स्था० साधु हरखचंदजी की पाषाणमय मारी है, सादड़ी में ताराचन्दजी की पाषाग की मूत्ति है । बड़ोति (जिला मेरठ ) में स्था० साधुओं की समाधिएँ और उन पर पादुकाएँ चिन्ह भी हैं । अंबाला (जि० पंजाब) में भी स्था० साधुओं की समाधि विद्यमान हैं । और भी अनेक स्थानों पर गुरुभक्ति के लिए ऐसे स्मारक बनाए गए हैं और आज भी बनाए जा रहे हैं।
आश्चर्य तो इस बात का है कि तीर्थंकरों की मूत्तियों की पूजा नहीं करने वाला स्था० समाज अपने मान्य पूज्यों की गति स्थिति तक का पूरा ठिकाना नहीं है; धूप, दीप, और पुष्पादि से पजा करता है । सैकड़ों कोसों से उनके दर्शनार्थ आता है । हम इनसे पछते हैं कि यह श्राना, समाधि पर लगे पत्थरों के वास्ते है या उन समाधि और पादुका में गुरुत्व का पूज्यभाव रखने का कारण है ? । यदि गुरुत्व का पूज्यभाव है तब तो गुरु के अभाव में उनके स्मृति चिन्हों का श्रादर करना गुरु की मूर्तपूजा है। और यदि उन समाधि आदि को कोरे पत्थर और काष्ठ जानकर पूज्यभाव रखते हैं तो इधर उधर घूम फिर कर नाहक समय, शरीर और धन का दुरूपयोग करना अव्वल नंबर की मर्खता है। यदि साधारण साधु श्रादि छदमस्थों के लिए भी आप यह पूज्यभाव रखते हैं तो फिर उन जगदुपकारी विश्ववंद्य तीर्थङ्करों के प्रति यह पज्यभाव न रखना कहाँ की बुद्धिमता है ?। ___स्थानकवासी साधु साधियों के चित्र और फोटो उनके भक्तों के कई घर घर में पूजे जाते हैं क्या भक्तों की साधुओं के प्रति यह मूर्तिपूजा नहीं है ? । यदि मूर्तिपूजा में हिंसा का प्रश्न किया जाय तो स्था० समाज में मूर्ति, पादुका, समाधि और फाटो
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