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________________ प्रकरण तीसरा ६२ सेयं तं एयणं देवाणुप्पियाणं पुब्बि पच्छावि हियाए सुहाए रकमाए निस्सेसाए अणुगामित्ताए भावस्संति" ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद-तब उन सूर्याभदेव के सामानिक (बराबरी ) के परिषदा में उत्पन्न हुवे देवताओं-सूर्याभदेव के उक्त प्रकार के अध्यवसाय यावत् समुत्पन्न हुवेअच्छी तरह जाने और जहाँ सूर्याभव था तहाँ आये श्राकर सुर्यामदेव को हाथ जोड कर सिरसावत अंजली करके जय हो विजय हो इस प्रकार वधाया, वाधा कर यों कहने लगे यो निश्चय अहो देवानुप्रिय । सूर्याभ विमान के सिद्धायतन में एक सौ आठ ( १०८ ) जिनप्रतिमा, जिन के शरीर प्रमान ऊंची स्थापन की हैं तथा सौधार्मिक सभा में माणवक चैत्य स्थंभ में वनरत्नमय गोल डुबों में बहुत जिन की दाडों रखी हुई है वे अचनीय (वन्दनीक पूजनीक ) यावन् पर्युपासना करने लायक है इसलिये यह देवानुप्रिय के प्रथम करने लायक काम है यह पीच्छे करने योग्य काम है यह देवानुप्रिय को प्रथम पीछे श्रेयकार है यह देवानुप्रिय को पहिले पोच्छे हितकारी सुखकारी क्षमाकारी निस्तारकारी, अनुगागिक होवेगा। श्री रायप्पसेनी सूत्र पृष्ट १४६ अहा ! अहा !! नरभव में प्रदेशी राजा की दृढ श्रद्धा और अटूट क्षमा। बाद प्रदेशी राजा का जीव देवलोक में सुर्याभदेव पने उत्पन्न होता है और उत्पन्न होते ही कैसी भावना ?। मुझे पहला क्या करना चाहिये ? मुझे पीछे क्या करना चाहिये ? और मुझे पहले क्या काम करने से कल्याण का कारण होगा और Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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