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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर चौबीसों तीर्थंकरों की स्थापना सुख पूर्वक हो सकती है, और राजप्रश्नी सूत्र में कहा भी है कि एक मन्दिर में "अट्ठसयं जिणपडिमाणं" पर आप तो पाँच इंच के छोटे से एक पन्ने में ही तीनों चौबीसों के ७२ तीर्थंकरों की स्थापना कर,
और उस पन्ने को पुस्तक में खूब कसकर बाँध अपने सिर पर लाद कर सुखपूर्वक फिरते हैं। भला, क्या इसका उत्तर आप समुचित दे सकेंगे ? या हमारे मन्दिर में चौबीसों तीर्थंकरों का होना स्वीकार करेंगे ?
प्र-सूत्रों में तो तीन चौबीस का नाम मात्र कहा है वही हमारे पन्नों में लिखा है, स्थापना कहाँ है ? ।
उ-जो नाम लिखा है वह अक्षर ही तो स्थापना है । जब मूर्ति स्वयं अरिहन्तों की स्थापना है, तो सूत्र उन अरिहन्तों की बाणी की स्थापना है इसमें कोई अन्तर नहीं है।
प्र०-सूत्रों के पढ़ने से ज्ञान होता है । क्या मूर्ति के देखने से भी ज्ञान होता है ।
उ.-ज्ञान होना या नहीं होना आत्मा के उपादान कारण से सम्बन्ध रखता है। सूत्र और मूर्ति तो मात्र निमित्त कारण हैं, सूत्रों से एकांत ज्ञान ही होता है तो जमाली गोशालादि ने भी यही सूत्र पढ़े थे, फिर उन्हें सम्यक्ज्ञान क्यों नहीं हुआ ? आप भी तो यही सूत्र पढ़ते हो फिर आपकी यह दशा क्यों ? और जगवल्लभाचार्य को मूर्ति के सामने केवल चैत्य-वन्दन करने ही से कैवल्य ज्ञान कैसे हो गया ? । इसी प्रकार अनेक पशु पक्षियों व जलचर जीवों को मूर्ति के देखने मात्र से जाति-स्मरणादि ज्ञान हो गये हैं, अतः नाम की अपेक्षा स्थापना से विशेष ज्ञान हो सकता
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