________________
३१२
भू.पू. वि. प्रभोत्तर
प्र०-शास्त्रों में तीर्थ चार प्रकार के बताए हैं, वहाँ शत्रु. जय और गिरनार का नाम नहीं है ?
उ.-वे चार तीर्थ कौन हैं ? कृपया बताइये ? प्र०-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ।
उ०-इन चार तीर्थों में तीर्थङ्कर तो रह ही गए, बतलाइये । वे किस तीर्थ में हैं ? - प्र०.- तीर्थङ्कर साधु-तीर्थ में समझे जाते होंगे।
उ०-तो फिर "नमो अरिहंताणं" और "नमो लोए सव्व साहूणं" ये दो पद पृथक २ क्यों कहे जाते हैं, एक ही क्यों नहीं कहा जाता है ? : प्र०-आप तो ऐसा उत्तर देते हैं कि हमको उल्टा झमेले में डाल देते हैं। न तो चार तीर्थों में तीर्थङ्कर अन्तर्गत होते हैं और न उनका स्वतंत्र नाम है । यदि इन्हें साधु-तीर्थ में समझे तो नवकार में दो पद कहना व्यर्थ हो जाता है । अब आप ही बताइये कि इसका क्या रहस्य है ? |
उ०-तीर्थङ्कर हैं वे तीर्थ-पति एवं तीर्थ स्थापक हैं और वे स्थापित तीर्थ चार प्रकार के हैं। जब शत्रुञ्जय गिरनार आदि तीर्थों पर तीर्थङ्करों की मूर्तिएँ स्थापित होने से वे तीर्थ-पतिः एवं सीर्थाऽधिराज कहाते हैं, तब चतुर्विध तीर्थ जैसे तीर्थङ्करों की भक्ति कर लाभ उठाते हैं, वैसे ही इन तीर्थों को सेवा-भक्ति करके भी लाभ उठा सकते हैं और उठा रहे हैं। क्यों समझे न भाई साहिब ?
. प्र०-खैर ! यह तो आपका कहना ठीक है, पर हमारे पूज्यजी महाराज फरमाते हैं कि जैन सूत्रों में चाहे "तुंगियानगरी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org
ww