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मू० पू० वि० प्रश्नोसर माई साहिब ? फिर भी हमारे कहने का कोई यह अर्थ नहीं कि व्याख्यान सुनना बुरा है, किन्तु जब आप एक तरफी खींच रहे हैं, इसी लिए ऐसा एक उदाहरण दिया है। नहीं तो जैन लोग पूजा के समय पूजा करें, व्याख्यान के समय व्याख्यान सुनें और सदैव जिनाज्ञा को पालें, इसी में ही परम कल्याण है।।
प्र-उत्तराऽध्ययन सूत्र में चार अङ्ग,मनुष्य-जन्म,' सूत्रों की श्रद्धा, संयम और वीर्य मिलना दुर्लभ कहा है। वहाँ मूर्ति-पूजा का मिलना दुर्लभ क्यों नहीं बतलाया है । ____उ०-पूजा तो इन चारों अङ्गों के अन्तर्गत आ गई है, पर
आप यह बतावें कि इन चारों अङ्गों में दान, शील, तप आदि क्यों नहीं पाए और यह नहीं आने से आप इन्हें व्यर्थ ही मानते होंगे तो फिर व्यर्थ का यह कष्ट क्यों किया जाता है ?
प्र०-दान, शील, तप श्रादि यदि चार अङ्गों में नहीं भी है तो क्या हुआ, दूसरे सूत्रों में तो हैं न ? ।
उ.-मूर्ति-पूजा भी चार अङ्गों में स्पष्टाक्षररूप में नहीं तो क्या हुश्रा, दूसरे सूत्रों में तो विस्तार से है और उन दूसरे सूत्रों पर श्रद्धा रखने से हो चार अङ्गों में दूसरा अङ्ग (सूत्रों की श्रद्धा) माना हुश्रा कहा जा सकता है।
प्र०-आपका उत्तर सुनने में मुझे बड़ा आनन्द होता है। आपकी युक्तिएँ प्रबल और अकाट्य हैं । न्यायपूर्वक दूसरों को वर्क करने को स्थान नहीं मिलता है।
उ०-मुझे भी इस बात का हर्ष है कि आपने न्याय को हृदय में स्थान दिया है । अतः मैं मेरे समय का सदुपयोग होना समझता हूँ, और भी कोई पूछना हो तो पूछिये ।
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