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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
३१० .. उ०-व्याख्यान में आना जाना आदि में जो जीव हिंसा हुइ वह आपके साधुओं के उपदेश से ही हुई है तो इस जीव हिंसा का पाप आपके साधुओं को लगता है वा नहीं ? - प्र०-हमारे साधु तो वीतराग की वाणी सुनने का अनुमोदन करते हैं, जीव हिंसा का नहीं।
उ०-तो क्या हमारे साधु फिर हिंसा का अनुमोदन करते होंगे आपका ऐसा खयाल है ? यदि हाँ तो आपके मिथ्या पक्षपात की फिर कोई सीमा ही नहीं रही क्योंकि आपके व्याख्यान सुनने को आने जाने में और प्रभु-पूजा करने में कारण कार्य सहश अभेद होने पर भी आप तो निर्दोष और केवल हम ही सदोष ऐसा अनूठा न्याय कहाँ का है ? वास्तव में हमारे साधु भी प्रभु पूजा का ही अनुमोदन करते हैं न कि सञ्चित द्रव्यों के उपमर्दन का।
प्र०-व्याख्यान में आने जाने में हिंसा तो होती है पर व्याख्यान श्रवण करने से ज्ञान भी तो होता है ?
उ-यह तो हम पहिले हो कह पाए हैं कि ज्ञान होना श्रात्मा का उपादान है । व्याख्यान में एक प्रसङ्गऐसा भी आता है कि "प्रदेशीराजा की सुरीकान्ता रानी ने राजा को जहर दे दिया, या रावण सीता को ले गया। यदि इन व्याख्यानों को सुनकर कोई औरत अपने पति को विष दे दे, या कोई विषयी पुरुष सुन्दर औरत को उठा कर ले जाय, तो क्या यह व्याख्यान ही का ज्ञान नहीं है ? पर प्रभु-पूजा में ऐसी घटनाओं को स्वप्न भी नहीं, क्योंकि पूजक लोगों के आत्मा का ध्यान तीर्थक्करों की जन्म, राज्य, दीक्षा और सिद्धावस्था की ओर ही लगा रहता है । समझेन
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