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________________ १० महासती द्रौपदी की पूजा सुरियाभ देव की मुवाफिक को है और सुरियाम देव ने जिन प्रतिमा की सत्रह प्रकार की पूजा करके नमोत्थुणं देकर अपने हृदय रहो हुए तीर्थङ्करों की भक्ति का परिचय दिया उसको हम गत प्रकरण के पृष्ठों में सविस्तार लिख आये हैं परन्तु ऋषिजी का हृदय कितना संकीर्ण है कि आपने उस पाठ को ही छोड़ दिया और उस पाठको अपने अनुवाद में देदिया परन्तु आपके अनुयायी स्वामि हर्षचन्दजी ने अपने 'श्रीमद् रायचन्द विचार निरीक्षण' नामक पुस्तक के पृष्ठ १५-१६ में लिखा है कि ww "द्रौपदी स्वयंभर मण्डप में जाता पहिला जिनप्रतिमा नो पूजन केधु छे x x x ते जगह जिनप्रतिम नी वार्ता छे अनमोत्थु अरिहंतोने भगवंता ने नमस्कार हो तेम पण छे इत्यादि ।” स्थानकमार्गी भाई जिनघर ( जिन मन्दिर ) जिन प्रतिमा और द्रौपदी की पूजा तथा नमोत्थुणं देना तो मानते हैं परन्तु कई लोग यह सवाल कर बैठते हैं कि द्रौपदी पूर्वभव में निधान किया था इसलिए उसको पूजा करने के समय समकित नहीं था । यदि द्रौपदी को उस समय समकित न होता तो विवाह जैसा संसारिक रंग-राग के समय वह घर देरासर की पूजा कर नगर मन्दिर में जाकर सत्रह प्रकार से जिनपूजा और नमोत्थूणं देकर यह प्रार्थना क्यों करती कि - तिन्नाणं ताग्याणं, बुद्धाणं बोहिगाणं मुत्ताणं मोग्गाणं सव्वन्नूगं सञ्चदर सि" क्या सम्यक् दृष्टि के सिवाय ऐसे उद्गार किसी का निकल सकता है। नहीं * इस विषय में मेरी लिखी हुई 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि' नामक तथा मूर्तिपूजा विषयक प्रश्नोत्तर किताब देखो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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