SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण चतुर्थ १०८ कदापि नहीं । खैर ? द्रौपदी न तो हमारे सम्बन्धियों में है और न आपके सम्बन्धियों में है कि उसके सम्यग्दृष्टि होने या नहीं होने के झगड़े में अपन पड़ें पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि द्रौपदी के समय जैनमन्दिर मूर्त्तियाँ थी और जैन लोग इन मंदिर मूर्तियों की सेवा-पूजा कर नमोत्थुणं द्वारा तीर्थङ्करों की स्तुति करते थे और द्रौपदी का समय जैनशास्त्रानुसार ८७००० वर्षों का है ८७००० वर्षों पूर्व तो जैतों में मन्दिर मूर्तियों का मानना हमारे स्थानकमार्गी साधुओं के कथनानुसार सिद्ध होता है और इस बात को स्थानकवासी समाज को खुल्लमखुल्ला मानना ही पड़ेगा चाहे वे आज माने चाहे कल व कालान्तर में परन्तु मानना - अवश्य होगा जैसे स्वामि हर्षचन्दजी ने माना है । इनके अलावा और भी श्रागमों में मूर्त्ति विषयक प्रमाण प्रचुरता से मिल सकते हैं पर ग्रन्थ बढ़ जाने के भय के कारण यहाँ विशेष उल्लेख करना मुल्तवी रखा है जब इतने आगमों से मूर्तिपूजा सिद्ध है तो दूसरे आगमों में मूर्तिपूजा विषय उल्लेख होने में संदेह ही क्या हो सकता है ? जैनागमों में जिस प्रकार तीर्थङ्करों की मूर्तियां का वर्णन है -इसी प्रकार स्थापनाचार्य का भी उल्लेख है क्योंकि प्रतिक्रमण सामायिकादि धर्म क्रिया करने के समय स्थापनाचार्य की भी परमावश्यकता है यदि स्थापना न हो तो, क्रिया करने वाला आदेश किस का ले और बिना गुरु श्रादेश क्रिया हो नहीं सकती है इसलिये ही शास्त्रकारों ने स्थापनाचार्य रखने का विधान बतलाया है । जैसे कि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy