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प्रचीन जैनमूर्तियाँ
विद्या भूषण जैसे प्रकाण्ड विद्वानोंने अपनो २ राय प्रकट की है कि यह शिलालेख महावीर के निर्वाण बाद वास्तव में ८४ वर्ष का ही है और जैनधर्म की प्राचीनता तथा महत्ता पर विशेष प्रकाश डालता है । स्थानकवासियों को शंका के निवारणार्थं पं० बेचरदासजी ने भी इस लेख को बारीकी से देखा है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि श्रीमान् संत बालजी जो अशोक के समय से मूर्तिपूजा का प्रचलित होना मानते थे, अब अपनी उस मान्यता को छोड़ वीरात् ८४ वर्ष में मानने लगे हैं। विश्वास है यदि आगे भी इसी प्रकार की पुरातत्व की शोध खोज होती रही तो स्थानकवासियों को वीरात ८४ वर्ष के बाद की मूर्ति मान्यता को भी बदलकर भग-वान महावीर के पुरोगामी प्रभु पार्श्वनाथ के समय से भी माननी पड़ेगी। क्योंकि मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुए स्तूप के.. विषय में जिसका कि वर्णन हम ऊपर लिख आये हैं उससे भी प्रस्तुत स्तूप बहुत पूर्व का है यहाँ तक कि पार्श्वनाथ का समय भी इनसे बहुत पीछे का है ।
प्रभु
(१४) पुरातत्व के अनन्य अभ्यासी श्रीमान् डॉ० प्राणनाथ का मत है कि ई० सन् के पूर्व पांचवी घट्टी शताब्दी में जैनियों के अन्दर मूर्ति का मानना ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध है ।
(१५) पटना की वस्ती श्रगम कुँया से मिली दो मूर्तियों के शिलालेखों से पुरातत्वज्ञ श्रीमान् काशीप्रसाद जायसवाल ने निर्णय पूर्वक यह घोषणा की है कि ये जैन मूर्तिएँ महाराजा कोणिक ( अजात शत्रु) के समय की ही हैं।
भारतीय इतिहास को रूपरेखा जिल्द १ पृष्ठ ५०२
(१६) काठियावाड़ - जैतलसर के पास मायाबन्दर
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