________________
मूर्तिपूजा की प्राचीनता अपने २ भक्तों को चित्र फोटो दर्शनार्थ देते हैं और वे भक्त उन चित्रों के दर्शन कर अपने आपको कृत-कृत्य मानते हैं। क्या यह मर्ति पूजा नहीं है ? - क्या कोई व्यक्ति यह बतलाने का साहस कर सकता है कि संसार में अमुक मत, पंथ, संप्रदाय, समाज, जाति, धर्म, या व्यक्ति मूर्तिपूजा से वञ्चित रह सकता है ? मनुष्यों के लिए तो क्या पर पशुओं के लिये भी मूर्तिकी परमावश्यकता प्रतीत होती है।मैं तो दावे के साथ यह कह सकता हूँ कि चाहे प्रत्यक्ष में मानो चाहे परोक्ष में, पर सब संसार मूर्तिपूजा को मानता ज़रूर है। हाँ ! मताग्रह के कारण मुँह से भले ही यह कह दो कि हम मूर्ति पूजा नहीं मानते हैं, पर वास्तव में मूर्ति बिना उनका काम भी नहीं चलता है। ____अन्त में मैं यह कह कर इस प्रकरण को यहीं समाप्त कर देता हूँ कि मूर्ति-पूजकों ने संसार का जितना उपकार किया है उतना ही मूर्तिविरोधकों ने संसार का अपकार किया है । मूर्ति आत्मकल्याण करने के साथ ही संसार की सच्ची उन्नति का साधन है। मूर्ति का विरोध करना आत्मा का अहित तथा संसार की पतन दशा का प्रधान कारण है। अतएव प्रत्येक आत्मार्थी को चाहिए कि वे मर्तिपूजा के उपासक बन संसार में स्व-पर-कल्याण का साधन करें।
संसार का अधिक भाग अशिक्षित एवं भद्रिक है । उसे पक्षविमोह के आग्रह के कारण आगमों के नाम से भ्रम में डाल दिया जाता है । अतएव उनके हितार्थ अगले प्रकरणों में आगमों के विषय में कुछ लिखने का प्रयत्न करेंगे। ओं शान्तिः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org