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________________ द्वितीय प्रकरण जैनागमों की प्रमाणिकता । किसी भी वस्तु का निर्णय करने के साधन इस समय तीर्थकर, केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधि - ज्ञानी और पूर्वघर नहीं हैं। आज तो जो कुछ भी साधन उपलब्ध हैं, वह जैनागम -- जैनशास्त्र - ही हैं । किंतु शास्त्र भी जितने प्रारम्भ में थे, उतने आज नहीं रहे । तो भी जितने शास्त्र शेष रहे हैं, वे ही हमारे लिये पर्याप्त हैं । कारण, कि मूलसूत्र संक्षिप्त होने पर भी उन पर पूर्वाचार्यों ने अत्यन्त विस्तार पूर्वक निर्युक्ति, टीका, चूणि, भाष्य इत्यादि बनाकर उन आगमों के गूढ़ रहस्यों को अत्यन्त सुलभ बना दिया, जिसके कारण हम लोग प्रत्येक पदार्थ के सम्बन्ध में सरलतापूर्वक निर्णय कर सकते हैं। जैनागम, मूल में तो द्वादशांग ( बारह अंग ) ही थे । यथा श्री आचारांग सूत्रकृतांग, स्थानांङ्ग, समवायाङ्ग, भगवत्यङ्ग, ज्ञाताङ्ग, उपासकदशाङ्ग, अन्तगढ़दशाङ्ग, अनुत्तरोवबाई, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवादान —— इन्हीं द्वादशाङ्गों में, सारे संसार के धार्मिक तथा व्यवहारिक ज्ञान का समावेश हो जाता है । उपर्युक्त द्वादशाङ्गों में बारहवां दृष्टिवाद अंग है । इस श्रंग का क्रमशः ह्रास होता गया और भगवान महावीर के पश्चात् १००० वर्षों में तो उसका ज्ञान सर्वथा विच्छेद ही होगया और ग्यारह अंग शेष रह गये। किंतु वे भी प्रारम्भ में जिस स्थिति में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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