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प्रकरण पहिला
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ने लगे, और ३२ सूत्रों में श्रावक के सामायिक पौसह प्रतिक्रमणादि के विस्तृत विधान न होने पर भी उन्होंने अपने समुदाय में इन क्रियाओं को सादर स्थान दिया; तथा साथही दान देने की भी छूट दे दी । इस प्रकार समय अपना कार्य करता रहा । समय के इस प्रबल परिवर्तनशील प्रताप से ही जिस मत के मूल पुरुष मूर्तिपूजा आदि का सख्त विरोध करते थे, अन्त में उनके ही अनुयायियों ने अपने मत में मूर्तिपूजा को भी उच्चासन दे दिया । और अद्यावधि यही नहीं किन्तु पीछे से ये तमाम क्रियाएँ इस मत में सादर चालू हुई ।
लौकागच्छीय श्री पूज्य मेघजी, श्रीपालजी, आनन्दजी आदि सैकड़ों साधु लौंकामत का त्याग कर पुनः जैनदीक्षा स्वीकार कर मूर्तिपूजा के कट्टर समर्थक और प्रचारक बन गये थे । इतना ही क्यों पर लोंकाच्छीय आचार्यों ने मर्त्तिपूजा स्वीकार कर कई एक मन्दिर-मतियों की प्रतिष्ठाएँ भी कराई, तथा अपने उपाश्रयों में वीतराग भगवान् को मूर्त्तिएँ स्थापित कर स्वयं भो उनकी उपासना करने लग गए। ऐसा कोई ग्राम या नगर नहीं रहा कि जहाँ लौकागच्छ का उपाश्रय हो, और वहाँ वीतराग की मूर्त्तियों का अभाव हो ? अर्थात् सर्वत्र मूर्तियों का अबाध प्रचार हो गया जो आज भी लौंकागच्छ के उपाश्रयों में मूर्त्तियों की विद्यमानता से स्पष्ट प्रमाणित होता है।
विक्रम की अठारहवीं शताब्दा में फिर लौकागच्छ से यति धर्मसिंहजी और लवजी ने अलग हो; मूर्त्ति के खिलाफ बलवा उठाया, इससे लौकागच्छ के श्रीपूज्यों ने इन दोनों को गच्छ से बाहिर कर दिया । इनके इस नव प्रचारित मत का नाम ढूँढिया
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