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मूर्तिपूजा की प्राचीनता
हुआ, साधुमार्गी तथा स्थानकवासी भी इन्हीं ढूंढिया सम्प्रदाय वालों का अपर नाम है । इस नये मत में आज भी मर्ति का विरोध विद्यमान है । पर ये लौकाशाह के अनुयायी नहीं हैं। क्योंकि लौकाशाह के अनुयायियों और इन ढूंढियोंको श्रद्धा तथा क्रियाओं में रात-दिन का अन्तर है। स्थानकमार्गी समाज तो यति लवजी का अनुयायो है।
स्थानकमार्गी समाज प्रारंभ से ही मर्तिपूजा का विरोध करता था, परन्तु जब जमाना पलटा, और संसार में ज्ञान का प्रचार हुआ तो स्थानकमार्गी समाज पर भी इस जमाने का न्यूनाधिक प्रभाव जरूर पड़ा और इसने भगवान् महावीर के पश्चात् ८४ वर्षों के अन्तर से मूर्तिपूजा का अस्तित्व भी स्वीकार किया * । यही नहीं, किन्तु इससे विशेष-मूर्तिपूजा की प्रारम्भ स्थिति सुविहितचाओं द्वारा प्रचलित हुई, और इस प्रवृत्ति से जैनाचार्यों ने जैन समाज का महान उपकार किया, ये बातें भी स्वीकार कर ली। अब तो मात्र एक कदम और आगे बढ़ने की जरूरत है, जिससे ४५० वर्षों का मतभेद स्वयं निर्मूल हो जाय और भिन्न भिन्न समुदायों में विभक्त जैनसमाज एकत्रित हो पर्ववत् शासन-सेवा एवं धर्म-प्रचार करने में समर्थ हो जायँ, यही मेरी हार्दिक शुभ भावना है।
* स्वामी सन्तबालजी। +स्वामी मणिलालजी के लेखों को देखिये, प्रकरण चौदहवां ।
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