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मूर्तिपूजा की प्राचीनता ।
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होता है कि उस समय क्या जैनों में और क्या हिन्दुओं में सर्वत्र मूर्तिपूजा का खूब प्रचार था । और बाद में र्लोकाशाह ने ही सर्व प्रथम इसका विरोध किया। ऐसी हालत में हम यह क्यों नहीं मान लें कि लौकाशाह पर इस प्रभाव के पड़ने का कारण केवल अनार्य संस्कृति का संसर्ग ही था । क्योंकि सिवाय 'इसके अन्य तो कारण दूँ ढे ही नहीं मिलता है । लौंकाशाह ने केवल मूर्तिपूजा का ही विरोध किया हो, सो नहीं किन्तु आपने तो उपाश्रय और यतियों के प्रति द्वेष के कारण जैनागम, जैन श्रमण, सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान और देवपूजा का भी विरोध किया था। * परन्तु श्राखिर जैन कुल में जन्म तथा तत्रत्य चिरकालीन धार्मिक संस्कारों के कारण जब उनका क्रोध शान्त हुआ तो उन्होंने इन दूषित विचारों पर पुन: विचार किया और मन में खयाल किया कि मैंने जरा से क्रोध के कारण यह क्या श्रनर्थ कर डाला ? बहुत संभव है, कि लौकाशाहने शायद अपनी अन्तिमाऽवस्था में इन कुकृत्यों के लिए प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप भी किए हों ? पर पकड़ी हुई बातों को आप अपने जीवन में छोड़ नहीं सके तथा पीछे से उनके अनुयायी वर्ग में धोरे २ पुनः परिवर्तन होता गया और पहिले के पवित्र संस्कार पुनः उनके दिलों में अपनी जड़ें जमाने लगे । इसी कारण ये फिर से जैनश्रमण और ३२ सूत्रों को मान
* देखो पं० लावण्य समय, उ० कमलसंयम मुनि वीका तथा लौकाबाच्छीय यति भानुचन्द्र तथा यति केशवजी कृत ग्रन्थ जो लौंकाशाह के जीवन के परिशिष्ट में मुद्रित हो चुके हैं ।
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