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प्रकरण पहिला
(६) श्रीमान रा० ब० पं० गौरीशंकरजी अोझा अपने राजपूताना का इतिहास पृष्ठ १४१८ में लिखते हैं कि स्थानकवासी (ढूंढिया ), श्वेताम्बर समुदाय से पृथक हुए जो मन्दिरों और मूर्तियों को नहीं मानते हैं उस शाखा के भी दो भेद हैं जो बारापन्थी और तेरह पन्थी कहलाते हैं, ढूंढियों का समुदाय बहुत प्राचीन नहीं है, लगमग ३०० वर्ष से यह प्रचलित हुआ है।
(७) दि० विद्वान् श्रीमान् नाथूरामजी प्रेमी ने अपने भाषण में खुल्लम खुल्ला यों कहा था कि "क्या आपने कभी इस पर विचार किया है कि जैन समुदाय में हज़ारों वर्षों से प्रचलित मूर्ति-पूजा का विरोध करके स्थानकवासी सम्प्रदाय की स्थापना करने वाले लौकाशाह पर किस धर्म का प्रभाव पड़ा था ? मेरा ख़याल है कि यह इस्लाम या मुस्लिम धर्म का ही प्रभाव था। दिगम्बर सम्प्रदाय का तारण पंथ भी शायद इसी प्रमाव का फल है" इत्यादि ।
उपर्युक्त इन प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के पूर्व तो भारत भर में सिवाय मुसलमानों के और कोई भी व्यक्ति मूर्तिपूजा का विरोध करने वाला नहीं था। तथा जब हम लौकाशाह के सम सामयिक गुजरात का इतिहास देखते हैं तब भी यही ज्ञात
® मेवाड़ में ढूंढियों को बारह पन्थी कहते हैं।
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