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ऐतिहासिक प्रमाण
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सूरि४, शय्यम्भवाचार्य ये सब मूर्तिपूजक आचार्य थे और मुँख. वत्रिका हाथ में रखनेवाले ही थे। इनके शासन में बौद्ध, वेदान्ति
और आजीवकों के साथ चर्चा का भी उल्लेख मिलता है पर वस्त्र रखना या न रखना, मूर्ति मानना या नहीं मानना, मुंखवत्रिका हाथ में रखना या मुँह पर डोरा डाल बाँधने का कहीं पर भो वाद विवाद की गन्ध तक भी नहीं मिलती है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि उस समय अखिल जैनों की एक ही मान्यता थी । जिनकल्पी वस्त्र नहीं रक्खे, स्थविर कल्पी रक्खे, मूर्ति सर्वत्र मानी जा रही थी और मुंखवत्रिका क्रिया समय या बोलते वक्त मुँह आगे रक्खी जाती थी। भगवान् महावीर की दूसरी शताब्दी
श्राचार्य यशोभद्रसूरि, यक्षदेवसूरि १ संभूतिविजयसरि भद्रजैन बनाये और वहाँ पर महावीर मन्दिर की प्रतिष्टा करवाई वे लोग क्रमशः महाजनवंश उपकेशवंश या ओसवंश के नाम से मशहूर हुए (उपकेशगच्छ पट्टावलि )
४-आपके उपदेश से कोरंटपुर नगर में महावीर मंदिर तैयार हुआ और वीरात् ७० वर्ष में भाचार्य रत्नप्रभसूरि के करकमलों से प्रतिष्ठा हुई ( कोरंटगच्छ पटावली)
५- यश स्थम्भ के नीचे रही हुई शान्तिनाथ की मूर्ति के दर्शन मात्र से प्रतिबोध पाकर प्रभवाचार्य के पास दीक्षा ले क्रमशः जैनाचार्य हुए ( दशवकालिक चूलका) १-आपने सिन्धभूमि में भ्रमण कर वहाँ के राजा रुद्राट्र और राजकुमार
कक्वको तथा हजारों लाखों मांस आहारियों को जैनधर्म में दीक्षित - कर सैकड़ों जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। (जैन जाति महोदय)
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