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तीर्थकरों का व्याख्यान
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कर खुद घण्टों तक व्याख्यान देते हैं और उस समय न तो उनके पास कोई वस्त्र रहता है और न मुँहपत्ती, तथा न ३४ अतिशयों में ऐसा कोई अतिशय बताया है कि तीर्थङ्कर घंटों तक व्याख्यान दे किन्तु उनके बोलने से वायुकाय के जीव न मरे । तीथङ्करों के हलते चलते फिरते और बोलते समय असंख्य वायुकाय के जीव मरते हैं। और इसी से उनके समय समय पर वेदनी कर्म का बन्धन होता है । किन्तु जरा पक्षपात और हठवादिता का चश्मा उतार कर यदि सोचें तो ज्ञात होगा कि जिन तीर्थङ्करों ने वायुकाय के जीवों का अस्तित्व हमें बतलाया है तथा चलने फिरने से उनकी विराधना होना दिखाया है वे स्वयंभी कुदरती कार्यों में योगों की प्रवृत्ति से असंख्य जीवोंके मरने से नहीं बच सके हैं। ऐसी दशा में आप जैसे अल्पज्ञ जीव कपड़े का एक टुकड़ा मुँहपर बांध उस कुदरती जी हिंसा को कैसे रोक सकते हैं ? । परन्तु जिन लोगों में यह कुप्रवृत्ति चालू है वह उनकी -शास्त्रीनभिज्ञता का परिचायक है और क्षणिक मानसिक कल्पना द्वारा विचारे भद्रिक जीवों को घोर उल्टे मार्ग में लगाया है ।
असल में तो मुँह पर कपड़े की पट्टी बांधना यह मुँहपत्ती नहीं पर एक प्रकार का कुलिङ्ग है । इससे कपड़े पर श्लेष्म लगने से असंख्यात समुत्सम त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है और इससे कर्म-बन्धन का कारण होता है। और जैन धर्मकी अवहेलना करने से मिध्यात्व का दोष भी लगता है । तथा यह कुप्रथा आरोग्यता की दृष्टि से यदि देखा जाय तो भी स्वास्थ्य को बड़ी हानिकर सिद्ध हुई है । तथा सूक्ष्मदृष्टि से यदि देखा जाय तो यह आत्मघात एवं संयमघाति क भी है ।
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