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________________ मु० पू० वि० प्रश्नोत्तर ३३० उदाहरण देकर स्वयं न करना यह कैसी भक्ति है ? वास्तव में कूणिक ने वन्दन किया था उसका उल्लेख उसी प्रकार गणधरों ने किया है कि उन्होंने तीन प्रदक्षिणा कर बादमें विधि पूर्वक वन्दन किया। दूसरों को यह पाठ बोलने के लिये है या इसके अनुसार वर्तन करने के ( आचरण करने के ) लिए है । पर आपके यहाँ ( स्थानकवासी समाज में ) यह एक अन्ध परम्परा चल रही है कि जब श्रावक आकर साधुत्रों के सामने "तिक्खुतो" पाठ कह दे तब वन्दना हो जाती है और इसी झूठी परम्परा के कारण पूज्यजी ने भी लिख दिया है कि तिक्खुता के पाठ से वन्दन करें। पर आपके ही समुदाय के मुनिश्री अमोल खर्षिजी ने श्रीश्रावश्यकसूत्र के पृष्ठ ४५ पर लिखा है कि "गुरु आदिको वन्दन नमस्कार करते समय कहना कि: " इच्छाकारेण संदिसह भगवान् अज्ज्ञ 'विहं अभितर देवसियं खमरं " इच्छ" खामेमि देवसियं जं किंचि पत्तियं पर पत्तियं भत्ते पाणे विणए वेयावच्चे आलावे संलावे उच्चासरणे समासणे अंतरभासाए उवरीभासाए जं किं च मझ विणिय परिहीणं सुहूमं वा वायरंवा तुम्भे जाह अहं न याणामि तस्समिच्छामि दकड़ें" [ 'यद्यपि यह मूल पाठ अशुद्ध है, पर जैसा स्वामीजी ने छापा है वैसा ही यहाँ लिख दिया है ] उपर्युक्त विधि वर्त्तमान जैनों में विद्यमान है । इतना ही क्यों, पर इसके पूर्व इच्छामि खमासमणो और सुहराइ सुहदेवसि एवं दो विधान और भी किये जाते हैं। १ अब्भुहिहि भोमि, ऐसा पाठ होना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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