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मिन्ध और हरप्पा
पूर्व भी जैनों में भगवान रिषभदेव को प्रथम तीर्थङ्कर मान, उनकी मूर्ति बना कर आत्म-कल्याणार्थ उनकी पूजा होती थी। परन्तु रिषभदेव को अाठवां अवतार मानने वाले पुराण-वादियों के पास इनके पुराणों के अलावा कोई भी प्राचीन प्रमाण होना स्पष्ट नहीं पाया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् रिषभदेव जैनियों के प्रथम तीर्थङ्कर थे और जिन्होंने भगवान् रिषभदेव को आठवां अवतार मान रक्खा है यह उनका भ्रम मात्र है ।
(४) सिन्ध और पञ्जाब की सरहद पर खुदाई का काम करते समय एक नगर भूमि से निकला है जो "हरप्पा" नाम से कहा जाता है । यह नगर ई० सन् के पूर्व पांच से दश हजार वर्ष पहिले का पुराना है । उस नगर में देवियों की मूर्तिऐं मिली हैं। ये मर्तिऐं उतनी ही प्राचीन हैं जितना कि प्राचीन यह नगर है । इस विषय में पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि भारत में मूर्शियों का मानना बहुत प्राचीन समय से था । जब यह कहा जाता है कि संसार भर को मर्तिपूजा का पाठ जैनियों ने ही सिखलाया अर्थात् मत्ति पजा सर्व प्रथम जैनियों ने चलाई और बाद में अन्य लोग जनों का अनुकरण करने लगे तो ऐसी दशा में हम यह क्यों नहीं मानलें कि १०००० वर्ष पहिले भी जैनों में तीर्थङ्करों की मलिऐं बड़े ही भक्ति भाव से पूजी जाती थी।
(५) कलिङ्ग जिन (जिन मूर्ति) पर्व दिशा में उड़ीसाप्रान्त के कुमार कुमारी नामक दो पहाड़ों को पहिले जमाने में शत्रुञ्जय और गिरनार अवतार समझते थे, पर आज कल उन्हें खण्डगिरि और उदयगिरि नाम से कहते हैं। पहिले ये दोनों पहाड़ जैन मंदिरों से विभूषित थे अतः जैनसमाज इन दोनों पहाड़ों को अपना
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