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'प्रकरण पांचवाँ
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परम पवित्र तीर्थधाम समझता था, तथा कई एक भावुक भक्त -बड़े २ संघ के साथ आकर के इन पर्वतों ( तीर्थ ) की यात्रा करते थे | एवं इनके पास जैन श्रमणों के ध्यान के लिए अनेक गुफाऐं भी थीं तथा उन गुफाभित्तियों पर जैन तीर्थङ्कों की विशालकाय सुन्दर २ मूर्ति अङ्कित थी जो आज भी यत्र तत्र 'अन्वेषण से दिखती है परन्तु दुःख है कि जिस कलिङ्ग देश में एक समय राजा और प्रजा सब जैनधर्म के परमोपासक थे वहाँ आज कुटिल काल चक्र के प्रभाव से एक भी जैनधर्मावलंबी नहीं है। ऐसा मालूम होता है कि किसी धर्मान्ध यवनों की आपत्तियों के कारण मानों जैनों को यहाँ से चिर समय के लिए ही निर्वासित कर दिया हो, तथापि प्राचीन जैन मंदिरों के ध्वंसाऽ विशेष, आज भी जैनों की पूर्व कालिक स्मृति तथा सांप्रतिक 'अकर्मण्यता का बोध कराते हुए ज्यों के त्यों खड़े हैं।
ई० सं. १८२० में पादरी स्टर्लिङ्ग साहिब की शोध पूर्ण दीर्घ दृष्टि कलिङ्ग के इन पहाड़ों पर पड़ी थी और जब कई -गुफाओं तथा गुफाओं के अन्तर्गत उन प्राचीन मूर्त्तियों वगेरह का अवलोकन करते हुए हस्ती गुफा की ओर आगे बढ़े तब वहां का निरीक्षण करते वक्त आपको एक विशद शिलालेख के दर्शन हुए । शिलालेख एक श्याम पाषाण पर अंकित था और उस पाषाण की लंबाई १५ फीट एवं चौड़ाई ५ फीट थी। उस पर -बड़े २ अक्षरों में सुन्दर १७ लाइनों में प्रस्तुत लिखा खुदा हुआ था, यद्यपि दीर्घकाल और असावधानी से कईएक अक्षर घिस गए थे तो भी शेष लेख बड़ा महत्वपूर्ण था, पादरी साहब उस लेख को देखते ही बड़े प्रसन्न हुए, पर लेख की भाषा पालीलिपि
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