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कलिंग जिन मूर्ति में होने से ठीक ठीक पढ़ नहीं सके, तयापि श्राप अकर्मण्य भारतीयों की भांति हतोत्साह नहीं हुए, अपितु इस लेख की प्रतिलिपी लेकर भारत और यूरोप में बड़ा भारी आन्दोलन मचा दिया। फिर तो डॉ-टामस, मेजर कीट, जनरल कनिंग होम विसेन्टस्मिथ और विहार के गवर्नर सर एडवर्ड साहिब
आदि पुरातत्त्वज्ञों ने, तथा भारतीय इतिहासज्ञ श्रीमान् काशीप्रशाद जायसवाल, मिस्टर राखालदास बनर्जी, भगवानदास इन्द्रजी तथा अन्तिम सफलता प्राप्त करने वाले पुरातत्त्व विशारद श्रीमान् केशवलाल हर्षदराय ध्रुव ने बड़ी बारीकी से निर्णय किया अर्थात् एक शताब्दी के अन्दर अनेक विद्वानों के पूर्ण परिश्रम और सर्व मान्य निर्णय करने वाला श्रीमान् ध्रुव महोदय ने ईस्वी सन् १९१८ में यह निष्कर्ष निकाला कि यह शिलालेख कलिङ्गपति महामोघबाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेल के समय का और उनकी खुद की विद्यमानता में लिखा हुआ है। आपने तो यहाँ तक कह डाला कि भारतीय शिलालेखों में इस शिलालेख का नम्बर अव्वल है। इस शिलालेख के गौरव का प्रभाव सम्पूर्ण भारत पर है, महाराजा खारवेल जैन धर्मोपासक होने पर भी सर्व धर्म पोषक थे; यही नहीं किन्तु वे जैन धर्म के कट्टर प्रचारक भी थे, यही कारण था कि
आपने कुमारी पर्वत पर जैनों की एक विराट सभा कर दूर दूर से जैनाचार्यों और जैन संघ को आमंत्रित कर एकत्र किया था । शिलालेख से पता मिलता है कि महाराजा खारवेल ने अन्यान्य महत् कार्यों के साथ लुप्त होने वाले " चौसट अध्याय
® देखो मेरा लिखा प्राचीन जैन इतिहास ज्ञान भानु किरण नं ३
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