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प्रकरण पांचाँ
१२२ सिक्कों में कई ऐसे भी हैं जिनमें एक ओर हस्ती और दूसरी
और चैत्य का दृश्य दीख पड़ता है। ये सिके मौर्यकालके होने, विद्वानों ने साबित किए हैं जो जैनियों का उत्कृष्ट अभ्युदय का समय था । इस प्रकार जब जैन चैत्यों के चिन्ह सिक्कों पर भी प्रारूढ़ होगए तब भूमि पर तो इनका एकछत्र राज्य होना खतः संभव है। मौर्यकाल का समय २३०० वर्षों का कहा जाता है और उस समय भारत भूमि धार्मिक मंदिरों से भूषित थी तो मंदिर मूर्तियों की प्राचीनता में सन्देह या शंका करने को स्थान ही कहाँ मिलता है । आर्यों में तथा विशेष कर जैनियों में तो मंदिर मत्तियों को धर्म साधन का अंग प्राचीन समय से ही समझा है।
(३) तत्तशिला के पास अंग्रेजों ने खुदाई का काम करवा कर भूमध्य से एक नगर निकाला है जिसका नाम "मोहन जोडरा" रक्खा है । वहाँ भूमि से ५००० वर्ष पूर्व की ध्यान मुद्रावाली एक मूर्ति उपलब्ध हुई है उस पर पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि ई. सन् के पाँच हजार वर्ष पूर्व भी जैनधर्म में मूर्तिपूजा विद्यमान थी। इस प्रबल प्रमाण से एक
और भी निपटारा हो सकता है और वह यह कि कई एक पुराण वादियों ने अपने चौबीस अवतारों में आठ रिषभाऽ वतार माना है । वह उनके वेद, उपनिषद् और श्रुति स्मृति में न होकर भी अर्वाचीन पुराणों में जरूर उल्लिखित है । मालूम होता है यह जैनियों का अनुकरण मात्र ही है क्योंकि जैनों के प्राचीन शास्त्रों में भगवान् रिषभदेव को प्रथम तीर्थक्कर माना है और प्रकृत प्राचीन मूर्ति से भी यही सिद्ध होता है कि ५००० वर्ष
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