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________________ १२१ तक्षशिला और मोरन जोडरा नमे स्तीर्थकृतस्तीर्थे, वर्षे द्विकचतुष्टये । आषाढ श्रावको गौडोऽकारयत् प्रतिमात्रयम् ॥ श्रीतत्व निर्णय प्रसाद पृष्ट ५३४ से इस शिलालेख से पाया जाता है कि नेमिनाथ भगवान् के २२२२ वर्ष बाद गौड़ देश के आषाढ़ श्रावक ने इस प्रतिमा को बनवा कर प्रतिष्ठा कराई थी, तथा २ प्रतिमाऐं और भी कराई, - इस विषय के और भी प्रमाण प्रभाविक चरित्र एवं प्रवचन परीक्षादि ग्रन्थों में भी मिल सकते हैं, तथा श्री ज्ञातासूत्र में द्रौपदी के अधिकार में भगवान् नेमिनाथ के शासन में भी जैन मंदिर होने के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं तो फिर कोई कारण नहीं कि हम पूर्वोक्त शिलालेख और नेमिनाथ के शासनाऽधिकार से -मन्दिर मूर्ति होने में थोड़ी भी शङ्का करें । अर्थात् इस शिला-लेख से स्पष्टतया यह सिद्ध होता है कि जैनों में लाखों वर्ष पूर्व भी मंदिर मूर्तियों का अस्तित्व था । (२) एक समय आर्य प्रजा में धर्मभावना इतनी दृढ़ थी कि वह आत्मकल्याणार्थ सर्वस्व अर्पण करने में ही अपना गौरव समझती थीं। तथा उसने अपने धर्म के स्तम्भ रूप मन्दिर मूर्तियों से समग्र मेदिनी मण्डल को आच्छादित कर दिया था एवं राजा महाराजाओं ने अपने चालू सिक्कों पर भी चैत्यचिन्ह कित कर दिये थे, ये सिक्के आज भी उत्तर हिन्द में भूगर्भ से बहुतायत में मिलते हैं तथा श्रीमान् डॉ. त्रिभुवनदास लेहरचंद ने अपने "प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास" द्वितीय भाग पृष्ट १३२ के अंदर ऐसे प्रायः २०० सिक्कों के चित्र दिये हैं । इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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