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म० पु० वि० प्रश्नोत्तर
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लगते हैं उसकी आलोचना करे और शुद्ध फाशुक आहार पानी की गवेषण करेगा वह ही श्राराधक होगा ! शेष हलवाइयों की दुकानों पर वक्त बे वख्त फिरते रहना मानों एक जैनधर्म की, निन्दा करवा के मिध्यात्व का पोषण करना है । समझे न
प्र० - मन्दिरों के लिये तो आपका कहना ठीक है, पर हम देखते हैं कि आपके संवेगी साधुओं के श्राचार में बड़ी शिथि लेता है ?
उ०- हमारे साधुओं में आपने क्या आचार-शिथिलता देखी और आपके साधुओं में क्या उत्कृष्टता समझी, क्योंकि जमाने की हवा किसी एक समुदाय के लिये नहीं होती है, वह सबके लिये समान रूप में ही है । फिर भी आपको यह भ्रम-रोग हुआ हो तो कृपया बतलाइये कि उसका इलाज भी तैयार है ?
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प्र० - आपके साधू विहार करते हैं, तब ऊँटगाड़ी और आदमी साथ में रखते हैं और उनकी बनाई रसोई से आहारपानी ले लेते हैं ?
उ०- हमारे साधुओं के साथ भक्ति करने कराने वाले रहते हैं, जैसे कि तीर्थंकरों की सेवा में करोड़ों देव रहते थे, फिर जिनका पुण्य और श्रतिशय । पर आप बतलाइये कि आपके पूज्य फूलचन्दजी स्वामी श्री सम्मेतशिखर की यात्रार्थ और कलकत्ते की ओर पधारे। वहाँ रास्ता में बहुत से ग्राम मांसाहारी लोगों के आते हैं । मेरे खयाल से स्वामीजी ने उन मांसाहारी घरों का अन्न-जल तो नहीं लिया होगा । इस हालत में उनको आदमी रखना ही पड़ा और उन आदमियों की बनाई रसोई भी लेनी पड़ी। इसी भांति स्वामी घासीलालजी कराँची पधारे, तब
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