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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
विधि से भक्त जन पूजा करते हैं। इसमें जल चन्दनादि द्रव्यों को देख के ही आप हिंसा २ की रट लगाते हो तो यह आपकी भूल है। यह तो पाँचवें गुणस्थान की क्रिया है पर छट्टे से १३ वें गुणस्थान तक भी ऐसी क्रिया नहीं है कि जिसमें जीवहिंसा न हो खुद, केवली हलन चलन की क्रिया करते हैं, उसमें भी तो जीव-हिंसा अवश्य होती है, इसी कारण से उनके दो समय का वेदनीकम का बंधन होता है । यदि साधु, श्रावक की क्रिया में हिंसा होतो ही नहीं तो वे समय २ पर सात कर्म क्यों बाँधते हैं ? इसका तो जरा विचार करो। जैसे पूजा की विधि में आप हिंसा मानते हो तो आपके गुरु-वंदन में आप हिंसा क्यों नहीं मानते हो ? उसमें भी तो असंख्य वायुकाय के जीव मरते हैं। साधु व्याख्यान देते समय हाथ ऊँचा नीचा करे, उसमें भी अनगणित वायुकाय के जीव मरते हैं। इसी तरह आँख का एक बाल चलता है तो उसमें भी अनेक वायुकाय के जीव मरते हैं। यदि आप यह कहो कि वंदना करने का, व्याख्यान देने का, परिणाम शुभ होता है; इससे उस हिंसा का फल नहीं होता, तो हमारी मूर्तिपूजा से फिर कौनसा अशुभ परिणाम या फल होता है, जो सारा पाप इसी के सिर मढ़ा जाय ? महाशय ! जरा समदशी बनो ताकि हमारे आपके परस्पर नाहक का कोई मत-भेद न रहे।
प्र०-पूजा यत्नों से नहीं की जाती है।
उ०-प्रभु पूजा सामायिक-पोसह प्रतिक्रमण गुरुवन्दनादि प्रत्येक क्रिया यत्नों से सोपयोग करनी चाहिये । पर अयत्ना देख उसे एक दम छोड़ ही नहीं देना चाहिये । जैसे:-श्रावक को
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