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भन्य धर्मियों के प्रमाण!
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इस पाठ में भासंतो' का अनुवाद स्वामिजी ने यत्न से भाषा समिति युक्त बोले किया है यदि मुंह बन्धा हो, तो फिर यत्न क्यों कहते। यत्नपूर्वक बोलने का तो जब ही कहा जा सकता है कि मुँहपत्ती हाथ में हो और बोलने का काम पड़े तब यत्नपूर्वक बोले यही शास्त्रकारों का अभीष्ट हैं । __इत्यादि हमारे स्थानकवासियों के माने हुए सूत्रों में और विशेष आपके हो किया हुआ हिंदी अनुवाद में पूर्वोक्त प्रमाणों से और इनके अलावा और भी बहुत प्रमाणों से निःशंकतया सिद्ध होता है कि जैन साधु साध्वियां हमेशा मुँहपत्ती हाथमें ही रखते थे और श्रावक श्रविकाएं सामायिक पोसह समय मुँहपत्ती हाथ में रखते थे और बोलने के समय मह आगे रख यत्नपूर्वक बोलते थे एवं आज भी वह प्रवृति और मान्यता ज्यों की त्यों जैन समाज में विद्यमान हैं। __ आगे चल कर हम अन्यमियों के शास्त्रों के थोड़े बहुत प्रमाण लिख देते हैं कि जैनमुनियों के मुँहपत्ती के विषय में के लोग क्या कहते हैं।
अन्य धर्मियों के धर्म शास्त्रों में
जैनमुनियों की मुँहपत्ती "दधानी मुमति मुखे, विभ्राणो दंडकं करे। शिरसो मुंडन कृत्वा, कुत्तौच कुश्चका, दधनं ।
श्री माल पुराण अ० ७९ गाथा ३३ इस श्लोक में मुंह पर मुँहपत्ती ( बोलते समय ) और एक हाथ में दंडा (गमन समय ) रखना बतलाया है। पर मुंह पर
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