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क्या तीर्थ० मुं० मुं० बाँ०
मुँहपत्ती बान्धना नहीं लिखा है इसी भाँति आज भी जैनसाधु बोलने के समय मुंहपर मुंहपत्ती रखके बोलते हैं यदि स्थानकवासी इस पाठ की ही शरण लेते हैं तो 'दंड करे' यानि हाथ में दंडा रखना स्पष्ट लिखा है तो हाथ में दंडा भी रखना चाहिये
और दंडा हाथ में रखेगा तो मुंहपत्ती भी हाथ में ही रखनी पड़ेगी। और भी लीजिये.. मुडंमलीन वस्त्रं च, गुपीं पात्र समन्वितं ।
दधान पुंजिका हस्ते, चालियं च पदे पदे ॥ वस्त्रयुक्त तथा हस्तं, तिप्प माणं मुखे सदा । धर्मेति व्याहरंतं, नमस्कृत्य स्थितं हरे॥
शिवपुराण ज्ञान संहिता अ० २१-२.३ भावार्थ-मुडा हुआ मस्तक, मलीन वन,गुप्तपात्र,समभाव, और रजोहरणसंयुक्त पग पग पर देख के चलते हैं-हाथ में वन (मुंहपत्ती) है बोलते समय शीघ्र मख के आगे रखते हैं नमस्कार करने वालों को धर्म (धर्मलाभ) करना कहने का व्यवहार है।
इन श्लोकों से भी यही पाया जाता है कि जैनमुनि मुँखवत्रिका सदैव से हाथ में ही रखते थे जब ही तो पुराणकारों ने इस बात का उल्लेख किया है तथा नाभानरेश के पण्डितों ने भी जैनशास्त्रों के अलावा इन श्लोकों के आधार पर ही इस विषय का फैसला दिया है कि जैनमुनियों का पक्ष बलवान है अर्थात् जैनमुनि मुँहपत्ती हमेशां हाथ में ही रखते आये हैं।।
इन पुराणों को हमारे स्थानकवासी भाई पांच हजार वर्षों के प्राचीन मानते हैं (वास्तव में इतने प्राचीन नहीं हैं ) यदि
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