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________________ ऐतिहासिक प्रमाण | ३८६ आपकी कल्पना सही है तो पांच हजार वर्षों पूर्व जैनमुनि मुँखवस्त्रिका हाथ में रखते थे इसके साथ दंडा हाथ में, पात्रों की झोली गुप्त और नमस्कार करने वाले को धर्मलाभ दिया करते थे । क्या हमारे स्थानकवासी भाई इन प्रमाणों से पूर्वोक्त धर्म विधान मानने को तैयार हैं ? अर्थात् यदि आत्म-कल्याण की अभिरुची है, तो वे अवश्य नानेगा । और मानना ही चाहिये । आगे हम कुछ प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों को मयचित्रों के यहां उद्धृत करेंगे | मुँहपत्ती के विषय में ऐतिहासिक प्रमाण ( १ ) श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरहपंथी इस बात को स्वीकार करते हैं कि तीर्थकर दीक्षा समय से ही अचेलक ( निर्वस्त्र ) रहते थे और घंटों तक व्याख्यान दिया करते थे । अतएव उनके न थी मुँहपत्ती और न था डोरा । ( २ ) शास्त्रीय प्रमाणों से भी यही सिद्ध होता है कि साधु और श्रावक धर्म - क्रिया करते वक्त मुँहपत्ती हाथ में रखते हैं । बोलते समय सिर्फ मुँह के सामने रख यत्ना पूर्वक बोलते हैं । इस विषय के विशेष शास्त्रीय प्रमाणों के लिए मुनिश्री मणिसागरजी म० रचित "आगमानुसार मुँस्ववस्त्रिका निर्णय " नामक बृहद् ग्रन्थ देखना चाहिए जो कि कोटा से मुफ्त मिलता है । ( ३ ) - ऐतिहासिक प्रमारणों से भी यह सिद्ध नहीं होता है कि किसी जैन तीर्थङ्कर साधु या श्रावक ने मुँहपत्ती में डोरा डाल मुँह पर बाँधी हो । क्योंकि आज भगवान् महावीर स्वामी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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