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________________ ३८३ क्या० ती० म ० म० बान्धते थे ? को खटाई दे, रंगे, रंगते को अच्छा जाने ॥ १४२ ॥" तो प्रायश्चित आता है। निशीथ सूत्र उ० ५ पृष्ट १७६ अब जरा ध्यान लगा कर सोचे कि यदि साधुत्रों का मुंह बन्धा हो तो शोभा के लिए उपरोक्त कार्य क्यों करते और सूत्रकारों ने इनका प्रायश्चित क्यों कहते इस सूत्रार्थ से तो यही स्पष्ट होता है कि जैनमुनि हमेशां से मुंहपत्ती हाथ में ही रखते आये हैं। फिर लीजिये "जे भिक्खु णिग्गंथीणं, आगमणं पहंसि दंडगं वा लट्टियं वा रयहरणं वा मुहपति वा अण्णयरं वा उवगरण जावं ठवेइ ठवंतवा साइज्जई" "नीशीथ सूत्र उ० ४ सूत्र २६ पृष्ट ४३" हिन्दी अनुवाद-जो साधु । साध्वी के आने के रास्ते दंडा लकड़ी रजोहरण मुँहपत्ती आदि उपकरण स्थापन करे (मम्करी के वास्ते) स्थापन करतो को अच्छा जाने" ____ यदि साधु-साध्वियों के मुंहपत्ती मुँह पर बान्धने का रिवाज होता तो साधु साध्वी के आगमन समय रास्ता में मुँहपत्ती क्यों रखता पर जैसे दंडा रजोहरण पास में पड़ा था इस भांति मुंह. पत्ती भी हाथ में ही थी कि वह साध्वी के आने वाले रास्ता पर रखदी इस पाठार्थ से निःसदेह निश्चय होजाता है कि जैन साधु मुँहपत्ती हाथ में ही रखते थे। "जयं चरे जयं चिट्टे, जयं आसे जयं सए । जयं भुंजतो भासंतो, पाव कम्मं न बंधइ ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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