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________________ स्था० शास्त्री के प्रमाण ! ३८२ ॥ ४८ ॥ जे भिक्खु दंत बीरिणयं वाएइ, वार्यतं वा साइज्जइ ॥४६॥ एवं उद्ववीणियं ॥ ५० ॥ एवं खास विणीयं ॥ ५१ ॥ । ” अर्थ - "जो कोई साधु मुँख को वीना नामक वादित्र जैसा बना कर बजावे, बजाते को अच्छा जाने ॥ ४८ ॥ ऐसे ही दंत को, होठ को नाक को, काँक्ष को, हाथ को, नख को, बीना की तरह बजावे, बजाने को अच्छा जाने ४९-५१" निशीथ सूत्र उ० ५ पृष्ट ४६ यदि मुँहबन्धा हो तो वे साधु मुँह से दांतों से । बिना कैसे बजाता और शास्त्रकार प्रायश्चित क्यों कहते इससे साबित होता है कि जैनसाधु हमेशां खुल्ले मुँह और हाथ में ही मुँहपत्ती रखते थे और मुँहपत्ती रखने का हेतु यह है कि बोलते समय मुँह आगे रख यत्न से बोले । " जे भिक्खू विभूसा वडियाए अप्पणोदते घसेज्ज वा घसेज्ज वा जाब साइज्जइ ॥ १४० ॥ जे भिक्खू विभूसा वडियार अपणोदते सीउदग वीयडेण वा जाव पधोवंतं वा साइज्जइ ॥ १४१ ॥ जे भिक्खू विभूसा बडि - या अपणोदते तेलेण वा जाव फुमेज्ज वा जाब साइज || १४२ ॥ " " जो साधू विभूषा के लिए अपने दांत को घसे घसते को अच्छा जाने || १४० ॥ जो साधु त्रिभूषा के लिए अपने दांत कोचित ठण्डे पानी से ( या ) गरम पानी से धोवे, धोते को अच्छा जाने ॥ १४१ ॥ जो साधु विभूषा के लिए अपने दांत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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