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________________ ३८१ क्या० ती• मुं• मुं० बान्धते थे। सहसास्कार वर्षाद में या दुग्धादि परिवर्तन करते समय अनायास उछल कर छांटा मुह में पड़ जाय । स्था० मान्य-आवश्यक सूत्र पृष्ट ४० इस बात को साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी समझ सकता है कि वर्षाद की छांट या दुधादि की छाँट उच्छल कर मुँह में पड़ जाय क्या इससे मुंहपत्ती हाथ में रखनी सिद्ध होती है ? या मुँह पर बाँधनी ? यदि मुंह पर मुंहपत्ती बाँधी हुई होती तो वर्षाद या दूध का, छाँटा मुंह में कैसे गिर जाता, इससे स्पष्ट सिद्ध है कि मुंहपत्ती हाथ में रहती है जबी तो गमना-गमन के समय वर्षाद का छाँटा अनायास मुंह में जा गिरे इस बात का प्रत्याख्यान में श्रागार बतलाया है । आगे और लीजिये । "साहरणं दंत पहोयणाय, संपुच्छणा, देहपलोयणाय ॥३॥ हिन्दी अनुवाद-संबाधन, हड्डो मांस त्वचा व रोम को सुख होवे वैसे तेलादि के मर्दन बिना कारण करे तो १५ दंत प्रधावन अंगुली श्रादि से दांत मंजन करे सो १५ x x काँच (आरिसा) पानी आदि में अपने शरीर का प्रतिबिंब देखना ।। स्था० अनु० दशवकालिक सूत्र अ० ३ पृष्ट १० दंत धावन और आरिसादि में शरीर देखना यह मुँह खुल्ला रहने से बनता है या मुँह बन्धा हुश्रा से ? पाठक स्वयं विचार सकते हैं ? इस लेख से भी मुंहपत्ती हाथ में रखना सिद्ध होता है । इसी विषय के उल्लेख निशीथ सूत्र में भी बहुत मिलते हैं. देखिये "जे भिख्ख मुहे वीणियं वाएइ, वायंतं वा साइज्जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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