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प्रकरण चतुर्थ
१.१६ (५) मूर्ति के नहीं मानने के कारण ही टीका नियुक्ति भाष्य चूर्णि वृत्यादि का अपमान कर वज्रपाप के भागी बनना पड़ा। और नई कपोलकल्पित टीकाएँ बनाकर अर्थ का अनर्थ करने में स्व पर का अहित करना पड़ा।
(६) मूर्ति नहीं स्वीकरने के कारण ही अनेक प्रन्थ चरित्रादि के अन्दर से मूर्ति विषयक पाठ निकाल उनके बदले स्वेच्छ कल्पित पाठ बनाकर स्वयं कर्मबन्धन कर अन्यभद्रिकों को भी इस कार्य में शामिल किये जैसे जैन रामायण उपासक दशांग टीका श्रीपालादि हजारों ग्रन्थों से ग्रंथकर्ता की चोरी करनी पड़ी।
(७) मर्ति नहीं मानने के कारण ही संघ में न्यातिजाति में कुसम्प पैदा हुआ और आप अपने को या दूसरों को बड़ा भारो नुकसान पहुँचाया।
(८) भगवान महावीर और आचार्य ग्नप्रभसरि से जैनों में शुद्धि की मिशन स्थापित हुई थी और लाखों करोड़ों अजैनों की शुद्धि कर जैन बनाये थे पर मूर्ति नहीं मानने वालों के उत्पात के बाद नये जैन बनाने के दरवाजे बिलकुल बन्द हो गये और
आपस की फूट से घटते ही चले आये हैं और उनको उल्टे उन उपकारी आचार्यों के प्रति कृतघ्नी बनना पड़ा। ___ पूर्वोक्त कार्य होने पर भी आज मूर्ति नहीं मानने वालों को मूर्ति की प्राचीनता भगवान महावीर के पश्चात् ८४ वर्ष में स्वीकार करनी पड़ी और भविष्य में कहाँ तक पहुँचेगा यह तो भावी के गर्भ में ही है। हम चाहते हैं कि शासन देव हमारे स्थानकमार्गी भाइयों को सद्बुद्धि प्रदान करे कि वे सत्य ग्रहण करने में समर्थ बनें।
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