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प्रकरण पांचवाँ
और वीर सन्देश ता० २५-५-३६ में । यदि यह बात सत्य है तो कोई कारण नहीं कि हम भगवान महावीर के पूर्व एक दो शताब्दी में मूर्तिपूजा नहीं मानें । अर्थात् इन सब प्राप्त प्राचीन मूर्तियों से सिद्ध होता है कि भगवान महावीर के पूर्व भी जैनों में मूर्तिपूजा का प्रचार प्रचुरता से था।
सातवाँ तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का मन्दिर-महात्मा बुद्ध सबसे पहले अपने धर्म का उपदेश करने को राजगृह नगर में आये तब वहाँ सुपार्श्वनाथ के तीर्थ में ठहरे थे, ऐसा बौध ग्रन्थ "महावग्गा के १-२२-२३" में लिखा मिलता है । यद्यपि इस मन्दिर का नाम "सुपतित्थ" अर्थात् सुपार्श्वनाथ तीर्थ का पालीभाषा में संक्षिप्त रूप 'सुष्पतित्थ' लिखा है। दिगम्बर विद्वान् बाबू कामताप्रसादजी ने स्व लिखित 'महावीर भगवान् और महात्मा बुद्ध' नामक पुस्तक के पृष्ट ५१ पर कई दलीलें एवं प्रमाण देकर इस बात को सिद्ध की है कि महात्मा बुद्ध सब से पहिले राजगृह नगर में आये तब श्री सुपार्श्वनाथ के मन्दिर में ठहरे थे। इससे यह निश्चय हो जाता है कि भगवान महावीर के समय सुपार्श्वनाथ का मन्दिर था तो फिर कोई कारण नहीं कि हम महावीर के समय मन्दिर मूर्ति होने में किंचित् भी शंका करें।
(८) अब रहा हमारा विशाला नगरी का स्तप जो ऊपर श्री नंदीसूत्र के उदाहरण से स्पष्ट कर आये हैं। इसी प्रकार मथुरा की खुदाई के काम तथा खण्डहरों में भी ऐसे अनेक स्तूप मिले हैं जिनकी प्राचीनता के विषय में एक पुरातत्त्व और मर्मक विष्पक्ष विद्वान् लिखते हैं कि:
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