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तीन प्रकार के जिन अरिहन्त
लेने के समय उनको मनःपर्यय ज्ञान होता है इसलिए दीक्षा के प्रारंभकाल से जहाँ तक केवलज्ञान न हो वहाँ तक वे मनःपर्यव जिन और मनःपर्यव अरिहन्त कहलाते हैं और केवलज्ञानोत्पन्न होने से वे केवली जिन व अरिहन्त कहलाते हैं । पाठक स्वतः समझ सकते हैं कि अवधि, मनःपर्यव, केवल, यह तीनों विशेषण उन्हीं जिन एवं अरिहन्तों के लिये है कि जिनको हम तीर्थकर कहते हैं और शाश्वति मतियों भी तीर्थंकरों की ही है और सम्यग्दृष्टि इन्द्रादि उन जिनप्रतिमाओं को तीर्थंकरों की मर्तियां समझ कर ही सत्रहभेदी पूजा और नमोत्थुणं के पाठ से स्तवना करते हैं । पाठकों को और भी अधिक विश्वास के लिये हम वि० सं० ११२० में आचार्य श्री अभयदेव सूरिकृत टीका को भी उद्धत कर देते हैं।
"तो जिणे, इत्यादि सुगमा नवरं रागद्वेष मोहान् जयन्तीति जिनाः सर्वज्ञाः” उक्तंच "रागद्वेषस्तथामोहो जितोयेन जिनोह्यसौ । अत्रौ-शस्त्रो क्षमालत्वादहन्नेव नुमीयत इति ॥१॥ तथा जिना इव ये वर्तन्ते निश्चय प्रत्यक्ष ज्ञान तया तेपि जिनास्त त्रावधि पूधानो जिनोवधिज्ञान जिन एव मितरावपि नवर माद्याबुपचरिता वितरो निरुपचार उपचार कारणन्तु प्रत्यक्ष ज्ञानीत्वमिति केवलभेकमनंत पुर्णवाज्ञानादि येषामास्ति त केवलिन उक्तंच 'कसिणं केवल कप्पं लोगं जाणंति तहय पांसति । केवल चरित नाणी तम्हा ते केवली होति ॥ २ ॥ रहापि जिनवद् व्याख्या अहंति देवादि कृतां पूजा मित्यहत्
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