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"नमोत्थु, अरिहंताणं, भगवंताणं” इति ।
कहिये ! यह नमस्कार किसको है भगवान् को या केवल मूर्ति को ? । आगे हम क्या प्रार्थना करते हैं कि " जिणारां जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुताणं मोगाणं, सव्वनूणं सव्वदरिसिणं" इस बात को साधारण बुद्धि वाले भी समझ सकते हैं कि हम जैन लोग केवल मूर्त्ति पूजक हैं या मूर्त्ति द्वारा तीर्थकरों के पूजक हैं ? |
प्र० - तो फिर कई एक लोग आपको जड़-उपासक क्यों कहते हैं ?
मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
उ०- ऐसा कहने वालों की खुद की बुद्धि की जड़ता है कि वे दूसरों के भावों को या विधानों को न समझ कर केवल द्वेष भाव से यद्वा तद्वा निंदा कर अपना कर्म बंधन करते हैं ।
प्र० - जब आप वीतराग भगवान के उपासक हैं, तो मूर्त्ति की क्या जरूरत है । वीतराग की उपासना तो बिना मूर्त्ति के भी हो सकती है ।
उ०—ऐसा कहना एकान्त भूल और अज्ञानता सूचक है क्योंकि कारण के अभाव से कार्य की सिद्धि हो ही नहीं सकती है । यह कथन केवल एक धर्म या एक व्यक्ति के लिए नहीं पर समग्र संसार के लिए है। और कारण कार्य की बदौलत सारा विश्व मूर्त्ति पूजक है। यह बात एक दूसरी है कि कोई सद्भाव मूर्त्तिमाने और कोई श्रसद्भाव मूर्त्ति को माने, पर मूर्ति बिना तो किसी का भी कोई काम नहीं चल सकता है ।
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प्र० -काम क्यों नहीं चल सकता, हम लोग मूर्त्तिपूजा बिलकुल नहीं मानते हैं और हमारा सब काम ज्यों का त्यों चल रहा है।
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